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समय : प्रथम अध्ययन - प्रथम उद्देशक
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में समर्थ नहीं है । इस प्रकार के मिथ्यामत के शिकार जो अन्यदर्शनी हैं, वे दुख को पार नहीं कर सकते ||२४||
वे अन्यदर्शनी लोग सन्धि ( कर्मबन्धन की रहस्यमय संधि) को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हो जाते हैं । वे लोग धर्म के तत्त्वज्ञ नहीं हैं । अतः जो पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्या प्ररूपणा करने वाले हैं, वे मृत्यु को पार नहीं कर सकते ।।२५।।
व्याख्या
अन्यदर्शनी लोगों की संधि के विषय में अनभिज्ञता
'ते णावि संधि णच्चा - इस पंक्ति में 'ते' शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिनके विषय में शास्त्रकार पूर्व गाथाओं में कह आये हैं । वे हैं - पंचभूतवादी, आत्माद्वैतवादी, तज्जीव- तच्छरीरवादी, अकारकवादी, आत्मषष्ठवादी, पंचस्कंधवादी एवं चातुर्धातुकवादी बौद्ध आदि-आदि विभिन्न अफलवादी मतों के प्ररूपक । छह गाथाओं में उन सबकी बन्ध-मोक्ष के विषय में अनभिज्ञता और अंधाधुंध क्रिया प्रवृत्ति देखते हुए उनके लिए कहा है कि वे धर्म के ज्ञाता नहीं है तथा वे अपनी मिथ्या विचारधाराओं के मताग्रह के कारण संसार सागर को पार नहीं कर सकते; न जन्म, मरण, गर्भ, दुःख आदि को नष्ट कर सकते हैं । वे ऐसे क्यों है ? इसका रहस्य हम क्रमश: खोल रहे हैं । इस पंक्ति का अर्थ यह है कि वे संधि को जाने बिना ही अंधाधुंध प्रवृत्ति करते रहते हैं । इस पंक्ति में 'संधि' शब्द अत्यन्त महत्व - पूर्ण और अर्थ - गंभीर है । संधि शब्द का यों तो अर्थ होता है-जोड़, या मेल । अथवा संधि शब्द का अर्थ संस्कृत व्याकरण के अनुसार सम्यक् प्रकार से धारण करना भी होता है । अथवा संधि का अर्थ छिद्र भी होता है । यहाँ सन्धि विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त है । वह यह है कि शास्त्रकार ने इस अध्ययन की प्रथम गाथा में बताया है - किमाह बंधणं वीरो । वीर भगवान ने कर्मबन्धन किसे कहा है ? जीव उस कर्मबन्धन से मुक्त कैसे हो सकता है ? उसी सन्दर्भ में शास्त्रकार ने यहाँ सन्धि शब्द का प्रयोग किया है। उससे यह द्योतित किया है कि अन्यदर्शनी, पूर्वोक्त मतवादी ( अफलवादी ) कर्मबन्धन और मुक्ति का मेल क्या है ? कर्मबन्धन का आत्मा के साथ कहाँ-कहाँ जोड़ है, मेल है ? इस बात को नहीं जानकर ही वे दुःख - मुक्ति के लिए दौड़धूप करते हैं । अथवा कर्मबन्धन के कारणों अथवा आत्मा के साथ कर्मबन्धन की सन्धि कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे, किन कारणों से हो जाती है ?
१. सम्यग्धीयते इति सन्धिः ।
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