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समय : प्रथम अध्ययन----प्रथम उद्देशक
अन्वयार्थ (पुढवी) पृथ्वी, (आउ) जल, (य) और (तेऊ) तेज (तहा) तथा (वाऊ य) वायु, (चत्तारि) ये चारों (धाउणो रूवं) धातु के रूप हैं। (एगओ) ये शरीर रूप में एक होकर जीव संज्ञा को प्राप्त करते हैं। (एवं) इस प्रकार (अवरे) दूसरे बौद्धों ने (आहंसु) कहा है ।
भावार्थ पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातु के रूप हैं। ये सब शरीर रूप में परिणत होकर एकाकार हो जाते हैं तब इनकी जीव संज्ञा होती है, ऐसा दूसरे बौद्ध कहते हैं।
व्याख्या
चातुर्धातुकवादी बौद्धमत का निरूपण बौद्धधर्म के कुछ मतवादी चातुर्धातुकवादी हैं। उनका मन्तव्य है कि जगत में पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातु ही सर्वस्व हैं । ये चारों जगत का धारणपोषण करते हैं इसलिए धातु कहलाते हैं । ये चारों धातु एक साथ मिलकर जगत को उत्पन्न करते हैं, धारण करते हैं और पोषण करते हैं । इन्हीं से जगत की उत्पत्ति होती है । इनमें पृथ्वी का स्वभाव कठोरता है, जल शीत गुणवाला है, अग्नि उष्ण स्पर्शवाली है और वायु सर्वथा गमन स्वभाव वाला है। इन्हीं चारों धातुओं के समुदित होने से घटादि का समूहरूप जगत उत्पन्न हुआ है। यही जब एकाकार होकर शरीररूप में परिणत होते हैं, तब इनकी जीवसंज्ञा होती है। मतलब यह है कि चार धातुओं में चैतन्य की (जिसे आत्मा या जीव कहते हैं) उत्पत्ति होती है। इन चार धातुओं से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं हैं। इन्हीं के समुदाय को आत्मा नाम दिया जाता है। जैसा कि वे कहते हैं –'चातुर्धातुकमिदं शरीरम्, न तद्व्यतिरिक्त आत्माऽस्तोति' अर्थात यह शरीर चार धातुओं से बना है। इनसे भिन्न कोई आत्मा नहीं है । यह दूसरे बौद्धों का कथन है।
'जाणगा'—किसी-किसी प्रति में 'अवरे' के स्थान पर 'जाणगा' पाठ मिलता है । उसका अर्थ होता है-'हम जानकार हैं' अर्थात् हम लोग बड़े ज्ञानी हैं, इस प्रकार की अभिमानरूपी अग्नि से जले हुए वे बौद्ध कहते हैं कि यह शरीर चार धातुओं से बना है तथा शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है।
१. जैसा कि विसुद्धिमग्गो में कहा है--तत्थ भूतरूपं चतुविधं-पृथवीधातु, आयो
धातु, तेजोधातु, वायोधातूति ।
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