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समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक
आदि धर्मों से युक्त मानता है । संसारी आत्मा, कर्म से परस्पर मिल कर शरीर के साथ सम्बद्ध होने के कारण मूर्त , अनित्य आदि भी माना जाता है।
तज्जीव-तच्छरीरवादी का मत यह भी है कि 'आत्मा (जीव) परलोकगामी (औपपातिक) नहीं है', यह भी यथार्थ नहीं है । निम्नोक्त अनुमान प्रयोग से आत्मा का परलोकगमन सिद्ध होता है-तत्काल जन्मे हुए शिशु को माता के स्तन-पान की इच्छा होती है, वह इच्छा पहले ही पहल नहीं हुई है, किन्तु वह उसके पूर्व की इच्छा से उत्पन्न हुई है, क्योंकि वह इच्छा है। जो-जो इच्छा होती है, वह अन्य इच्छापूर्वक ही होती है, जैसे कुमार (५-७ वर्ष के बालक) की इच्छा। इसी प्रकार बालक का विज्ञान, अन्य विज्ञानपूर्वक है, क्योंकि वह विज्ञान है। जो-जो विज्ञान है, वह अन्य विज्ञानपूर्वक ही होता है, जैसे कुमार का विज्ञान ।
तत्काल जन्मा हुआ बच्चा जब तक 'यह वही स्तन है' इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं कर लेता है, तब तक रोना बन्द कर वह स्तन में मुख नहीं लगाता । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि बालक में कुछ न कुछ विज्ञान (प्रत्यभिज्ञान) अवश्य होता है। वह यत्किचित विज्ञान अन्य विज्ञानपूर्वक होता है । वह अन्य विज्ञान पूर्वजन्म (दूसरे भव) का ज्ञान ही हो सकता है । अत: यह सिद्ध होता है कि परलोक में जाने वाला पदार्थ (आत्मा) अवश्य है।
आशय यह है कि जिस पदार्थ का जिसने कभी उपभोग नहीं किया, उसकी इच्छा उसमें नहीं होती है । उसी दिन का जन्मा हुआ बालक माता के स्तन पीने की इच्छा करता है, परन्तु उसने जन्म लेने से पहले कभी स्तनपान नहीं किया है। फिर उस बालक को स्तन पीने की इच्छा क्यों हुई? इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस बालक ने पूर्वजन्म में माता का स्तनपान किया है, इसीलिए उसको स्तनपान की फिर इच्छा हुई है । अतः परलोकगामी आत्मा अवश्य है, यह प्रमाणित होता है।
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए तज्जीव-तच्छरीरवादियों ने कहा था कि 'विज्ञानघन आत्मा इन भूतों से उत्पन्न होकर इनके नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है इत्यादि', यह भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि इस श्रुतिवाक्य का ऊपर जो अर्थ किया गया है, वह ठीक नहीं है, इसका सम्यक् अर्थ है-विज्ञानपिण्ड आत्मा पूर्वभव के कर्मवश शरीररूप में परिणत पंचमहाभूतों के द्वारा अपने कर्म का फल भोगकर उन भूतों के नष्ट होने पर उस रूप से नष्ट होकर फिर दूसरे पर्याय में उत्पन्न होता है। जैसे घट के नष्ट हो जाने पर घट-उपाधिवाला (घट-सम्बद्ध) आकाश नष्ट हुआ सा प्रतीत होता है; लेकिन वह सर्वथा नष्ट नहीं होता, उसका सम्बन्ध पट आदि से हो जाता है। इसी प्रकार एक पर्याय का विनाश होने पर उस पर्याय से
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