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समय : प्रथम अध्ययन–प्रथम उद्देशक पूर्वोक्त पर्यायों की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है । लेकिन द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है । किसी की आत्मा ने मनुष्य शरीर धारण किया, लेकिन फिर जहाँ-जहाँ उसका जीव जिस-जिस योनि में जो-जो शरीर धारण करेगा, वहाँ-वहाँ सर्वत्र आत्मा जाएगा। विविध शरीरों के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होगा। यहाँ तक कि फिर कभी शरीर धारण नहीं करना पड़ेगा, ऐसी मुक्त-सिद्ध-बुद्ध स्थिति आने पर भी उस जीव का शरीर छूट जाएगा, मगर आत्मा मुक्ति में साथ ही जाएगी। अतः आत्मा नि य है, शाश्वत है । अगर आत्मा को एकान्त रूप से अनित्य मान लिया जाए तो केवलज्ञान, मोक्ष आदि के लिए यम, नियम, प्राणायाम, तप, स्वाध्याय, श्रवण, मनन, धारणा, ध्यान, समाधि, ईश्वरप्रणिधान आदि लोकोत्तर फल के साधनों का तथा श्रम, कृषि, व्यापार, सेवा, दान, परोपकार आदि इहलौकिक फल देने वाले कर्मों का तथा प्रत्यभिज्ञान, स्मरण आदि का सर्वथा लोप हो जायेगा । तात्पर्य यह है कि सभी बुद्धिमान व्यक्ति आत्मा को अपने शरीर से भिन्न, परलोक में साथ जाने वाला, कथंचित् नित्य जान कर ही पारलौकिक फल के साधन दान, पुण्य, सेवा, परोपकार आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्त होते हैं । अगर वे प्रज्ञामूर्ति जन आत्मा को एकान्त अनित्य समझते तो जिस शरीर के द्वारा या जिस शरीर में रहकर दानधर्म, पुण्य, परोपकार आदि शुमकर्म किये हैं; वह शरीर, वह आत्मा और किये हुए सभी शुमकर्म सबके सब यहीं मरने के साथ ही नष्ट हो जायेंगे; फिर कालान्तर में पुण्यादि शुभ कार्यों के फलस्वरूप स्वर्गादि परलोक या भवान्तर में कुछ नहीं मिलेंगे, यह जान कर कौन पुण्यादि शुभ कर्म करते ? जब आत्मा देहनाश के साथ ही समाप्त हो जाएगा, तब पाप करने वालों को तो पाप करने की खुली छूट मिल जायगी कि शरीर, आत्मा तथा शुभाशुभ कर्म सबके सब यहीं नष्ट हो जायेंगे, आगे कर्मफल भोगने के लिए कहीं जाना नहीं है। संसार में तब तो अव्यवस्था और अराजकता छा जाएगी। शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहेगी। ऐसा तो होता ही नहीं कि एक आत्मा (जीव) के बदले दूसरा जीव फल भोग ले । इसलिए आत्मा एकान्त अनित्य नहीं है ।
इसी प्रकार आत्मा एकान्त नित्य भी नहीं है, क्योंकि एकान्त नित्य आत्मा को मानने पर जन्म, मरण, तथा नरक, तिर्यन्च, मनुष्य और देवगति आदि की व्यवस्था ही नहीं बन सकती।
अतएव आत्मा कथंचित् अनित्य है और कथंचित् नित्य भी है। एक ही आत्मा में द्रव्य की अपेक्षा से नित्यता और देव, नारक, तिर्यञ्च आदि पर्याय की अपेक्षा से अनित्यता मानने में कोई दोष नहीं आता।
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