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समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक
चार्वाक को चक्षु आदि इन्द्रियों को हो द्रष्टा मानना पड़ा है। प्रत्येक इन्द्रिय अपनेअपने विषय को ग्रहण करती है।
दूसरी इन्द्रिय के विषय को दूसरी इन्द्रिय ग्रहण नहीं करती। इसलिए एक इन्द्रिय द्वारा ज्ञात अर्थ को दूसरी इन्द्रिय नहीं जान सकती। ऐसी स्थिति में 'मैंने पाँच ही विषयों को जाना।' इस प्रकार का सम्मेलनात्मक ज्ञान चार्वाक मत में हो नहीं सकता। परन्तु इस प्रकार के सम्मेलनात्मक ज्ञान का अनुभव होता है, इसलिये मानना पड़ेगा कि इन्द्रियों से भिन्न कोई एक द्रष्टा अवश्य होना चाहिए। वह द्रष्टा आत्मा ही हो सकता है, भूत समुदाय नहीं, क्योंकि चैतन्यगुण द्रष्टा (आत्मा) का ही है, भूत समुदाय का नहीं। इस सम्बन्ध में इस प्रकार का अनुमान प्रयोग होता है --- भूत समुदाय का गुण चैतन्य नहीं है, क्योंकि भूतों से बनी हुई इन्द्रियाँ एक-एक विषय की ग्राहक होकर भी सब विषयों के मेलनरूप ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकतीं। यदि दूसरे के द्वारा जाने हुए अर्थ को दूसरा भी जान लेता हो, तब तो देवदत्त द्वारा जाने हुए अर्थ को यज्ञदत्त भी जानने लगेगा परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है, अनुभव भी इसके विपरीत है, और ऐसा इष्ट भी नहीं है। शंका-यदि इन्द्रियों को ही ज्ञानवान माना जाए तो प्रश्न होता है कि सब इन्द्रियाँ मिलकर ज्ञान का आधार हैं या पृथक-पृथक ? यदि कहें कि सब इन्द्रियाँ मिलकर हैं, तब तो एक इन्द्रिय का नाश होने पर ज्ञानवान का ही नाश हो जाएगा। वहाँ फिर ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होगी। क्योंकि ज्ञान के आधार का नाश हो चुका है। यदि कहें कि पृथक-पृथक एक-एक इन्द्रिय ज्ञान का आधार है, तब तो किसी कारणवश नेत्र के नष्ट होने पर पहले देखे हुए रूप का स्मरण होना चाहिए, किन्तु वह नहीं होता वयोंकि अनुभवकर्ता (नेत्र) अब विद्यमान नहीं है।
तात्पर्य यह है कि जिस अधिकरण में जिस विषय का अनुभव उत्पन्न होता है, उसी अधिकरण में पूर्वोत्पन्न अनुभव से प्राप्त संस्कार के बल से कालान्तर में स्मरण उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं होता कि अनुभव एक करे और स्मरण करे दूसरा। ऋषभदत्त ने जिसका अनुभव किया है, उसका स्मरण अभिनन्दनप्रसाद को हो जाए, ऐसा देखा नहीं जाता। यदि दूसरे के द्वारा अवलोकित पदार्थ का स्मरण दूसरे को होने लगे, तब तो सर्वज्ञ के द्वारा देखे गये पदार्थों का स्मरण हम लोगों को हो जाना चाहिए, ताकि हम भी झटपट सर्वज्ञ बन जाएँ। लेकिन ऐसा कदापि होता नहीं है । दूसरे के देखे हुए पदार्थ को दूसरा स्मरण नहीं कर पाता.--."नान्यद् दृष्टं स्मरत्यन्यो नैकभूतमक्रमात् ।” एतएव इन्द्रियाँ चेतनाबान नहीं हैं। इस तर्क से भूत समुदाय में चैतन्य का अभाव सिद्ध कर दिया है।
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