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________________ सूत्रकृतांग सूत्र अनुमान से सिद्ध करने वाले पुरुष से भी भूल हो जाना दुर्लभ नहीं है। जिस प्रकार अनुमान को अविश्वसनीय एवं भ्रान्तिजनक बताया गया है वैसे ही आगम आदि को भी उपलक्षण से समझ लेना चाहिए, क्योंकि आगम आदि में भी पदार्थ का इन्द्रिय के साथ सीधा सन्निकर्ष (सम्बन्ध) न होने के कारण उसमें भी भूल हो जाना संभव है। इसलिए हम एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं और प्रत्यक्ष से तो पाँच महाभूतों से भिन्न आत्मा नामक पदार्थ का ग्रहण नहीं होता। उनसे जब पूछा जाता है कि चैतन्य शक्ति, जो आत्मा की शक्ति है, वह उन पाँच भूतों में कैसे और कहाँ से आएगी ? इस पर वे कहते हैं—पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश इन पंचभूतों के विशिष्ट संयोग से वे भूत शरीराकाररूप में परिणत हो जाते हैं जैसे---गुड़, महुआ आदि मद्य की सामग्री के संयोग से मद शक्ति पैदा हो जाती है, वैसे ही शरीर में पंचभूतों के संयोग से चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है।' वह चैतन्य शक्ति पंचमहाभूतों से भिन्न नहीं है क्योंकि वह पंचमहाभूतों का ही कार्य है जैसे पृथ्वी से उत्पन्न घटादि कार्य पृथ्वी से भिन्न नहीं है वैसे ही पंचमहाभूतों से भिन्न आत्मा नहीं है क्योंकि उन्हों से ही उसी तरह चैतत्य शक्ति प्रकट होती है। कोई यह कह सकता है कि चार्वाक' पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों को ही मानते हैं, उन्हीं के संयोग से चैतत्य शक्ति प्रकट होना स्वीकार करते हैं, यहाँ शास्त्रकार ने पाँचवे भूत आकाश का अस्तित्व भी उनके पक्ष में बताया है, यह पूर्वापर विरोध क्यों ? इसके उत्तर में यही कहना है कि शास्त्रकार का कथन यथार्थ है। कई चार्वाक आचार्य आकाश को भी पाँचवाँ भूत मानकर जगत को पंचभौतिक कहते हैं। इनके मत में इन भूतों के विशिष्ट संयोग से ही १. (क) पृथिव्यादिभूत संहत्यां तथा देहादिसम्भवः । मदशक्तिः सुरांगेभ्यो यत्तदवच्चिदात्मनि ॥८४॥ ___ -षड्दर्शनसमुच्चय (ख) शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञ के च पृथिव्यादिभूतेभ्यश्चैतन्याभिव्यक्तिः पिष्टोदकः गुडघातक्यादिभ्यो मदशक्तिवत् । प्रमेयकमल० पृ० ११५ २. 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरविषयेन्द्रियसंज्ञा, तेभ्यश्चैतन्यम् । -तत्त्वोप० श० भाष्य ३. चतुभ्यःखलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते, किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्ति वत् । -सर्वदर्शनसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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