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________________ समय : प्रथम अध्ययन --- प्रथम उद्देशक ६५. मतवादियों ने भी भूतों का अस्तित्व स्वीकार किया है, ऐसी स्थिति में केवल लोकाare ( चार्वाक ) मत को लेकर ही पंच महाभूतों का कथन क्यों किया ? इसके उत्तर में निःसंदेह कहा जा सकता है कि दूसरे पंचमहाभूतवादियों का उल्लेख न करने से शास्त्रकार का आशय यह है कि सांख्य आदि दर्शनकार केवल पंचमहाभूतों को ही जगत में सर्वस्व नहीं मानते, अपितु वे प्रकृति से महत्तत्व, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच तन्मात्रा, पुरुष आदि तथा दिशा, काल, आत्मा, मन आदि अन्य पदार्थों को भी मानते हैं, जबकि लोकायतिक मतानुयायी पंचमहाभूतों से भिन्न आत्मा आदि पदार्थों को बिल्कुल नहीं मानते । इसलिये लोकाSafe (चाक) मत को लेकर ही इस गाथा में उल्लेख किया गया है । इसी आशय को अभिव्यक्त करने के लिये शास्त्रकार स्वयं दवीं गाथा में कहते हैं -- "एए पंचभूया तेब्भो एगोति आहिया ।" तात्पर्य यह है कि चार्वाक मत का मन्तव्य है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, ये पाँच महाभूत हैं । ये पाँच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजन - प्रत्यक्ष होने से महान हैं । इस विश्व में इनके अस्तित्व से न कोई इन्कार कर सका है, और न ही इनका खण्डन कर सका है। दूसरे मतवादियों द्वारा कल्पित, पाँच भूतों . से भिन्न आत्मा नाम का परलोक में जाने वाला, सुख-दुख भोगने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है । पृथ्वी आदि जो पाँच महाभूत हैं, पर इन्हीं भूतों से अभिन्न ज्ञानस्वरूप एक आत्मा उत्पन्न होता है । इनके शरीररूप में परिणत होने अपने मत को सत्य प्रमाणित करने के लिये वे इस प्रकार की युक्तियाँ देते हैं -- पृथ्वी आदि से अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं हैं, क्योंकि उसका बोधक कोई प्रमाण नहीं मिलता है । प्रमाण भी हम एकमात्र प्रत्यक्ष को ही मानते हैं । अनुमान आदि प्रमाण को हमारे यहाँ कोई स्थान नहीं है, क्योंकि अनुमान आदि में पदार्थ का इन्द्रियों के साथ साक्षात सीधा सम्बन्ध नहीं होता । इसलिये उनका मिथ्या होना संभव है । क्योंकि प्रायः अनुमान आदि मिथ्या हो जाते हैं और उनमें बाध एवं असंभव दोष भी हो सकते हैं । अतः अनुमान आदि में प्रमाण का लक्षण घटित नहीं होता । प्रमाण का लक्षण घटित न होने से अनुमान आदि में विश्वास नहीं किया जा सकता है। कहा भी है हस्तस्पर्शादिवान्धेन अनुमान प्रधानेन विनिपातो विषमे पथि न जैसे ऊबड़-खाबड़ मार्ग में किसी के हाथ दौड़ते हुए अंन्ध का गिर जाना कोई दुर्लभ नहीं हैं, Jain Education International धावता । दुर्लभः ॥ स्पर्श से (गलत अनुमान करके ) वैसे ही बिना देखे हुए पदार्थ के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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