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सूत्रकृतांग सूत्र गन्थे विउक्कम्म-----इस वाक्य का एक और भी अर्थ परिलक्षित होता है। वह यह है कि पूर्वोक्त गाथाओं में जो ग्रन्थ अर्थात कर्मवन्धन में डालने वाली गाँहिंसा, परिग्रह, ममत्व आदि बताई गई हैं उन कर्मबन्धन के ग्रन्थों को गाँठ न समझ कर वे ठुकरा देते हैं, अपनी स्वच्छन्दबुद्धि से कल्पित मतों में अत्यन्त बँधे रहते हैं। उन्हें भान ही नहीं होता या उनके मन में अज्ञानवश कोई विचार ही नहीं उठता कि कर्मबन्धन के कारणों को बढ़ावा देने वाले इन मतों को पकड़े रहकर तदनुसार विषयासक्ति में फंसकर मैं अपनी आत्मा को बन्धन से मुक्त करने की अपेक्षा उलटे बन्धनों में डाल रहा हूँ।
इसीलिए अनन्त करुणा से प्रेरित होकर सर्वज्ञ वीतराग प्रभु कहते हैं-- 'अयाणंता विउस्सित्ता सत्ता कामेहि माणत्रा' वे दयनीय मानव इन पूर्वोक्त कर्मबन्धन की गाँठों को नहीं जान-समझ कर इनकी उपेक्षा कर देते हैं, और अपने मनमाने मत में बँध कर तदनुसार वैषयिक सुखभोगों में लीन हो जाते हैं। इस प्रकार वे बेचारे अपनी आत्मा को मुक्त करने के बजाय और अधिक बन्धनों में डालते हैं ।
अब इस उद्देशक की अगली समस्त गाथाओं में कर्मबन्धन के प्रबल कारणभूत मिथ्यात्व से ग्रस्त विभिन्न मतवादियों के सिद्धान्त का वर्णन करते हैं। सातवीं और आठवीं गाथा में पंचमहाभूतवादियों के मत का दिग्दर्शन कराते हैं--
मूल पाठ संति पंच महब्भूया, इह मेगेसिमाहिया । पुढवी आउ तेऊ वा वाउ आगासपंचमा ।।७।।
संस्कृत छाया सन्ति पन्च महाभूतानीहैकेषामाख्यातानि । पृथिव्यापस्तेजो वा वायुराकाशपन्चमानि ।।७।।
अन्वयार्थ (इह) इस लोक में (पंच महन्भूया) पाँच महाभूत (सन्ति) हैं, (एगेसि) ऐसा किन्हीं ने, (आहिया) कहा । (पुढवी) पृथ्वी, (आउ) जल, (तेऊ) तेज, (वाउ) वायु (वा) और (आगास पंचमा) पाँचवाँ आकाश ।
भावार्थ पंच महाभूतवादियों का कथन है कि इस लोक में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत हैं।
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