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________________ समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक ६१ नहीं रहा । हे भीरु ! गया समय लौटकर नहीं आता तथा यह शरीर भी पंच महाभूतों का पुंज ही है।' इस प्रकार चार्वाकमत (लोकायतिक) अपने ही मुह से अपने मिथ्यात्व को प्रमाणित कर रहा है । क्योंकि प्रत्यक्ष के सिवाय और कोई प्रमाण यह नहीं मानता। जब आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं मानता, तब पुण्य-पाप, उसके कारण शुभाशुभ कर्मबन्धन एवं उसके फलस्वरूप स्वर्ग-नरक एवं सर्वथा कर्मबन्धन से मुक्त होने का उपाय ही सिद्ध नहीं होता। पूर्वोक्त मतवादियों के सिद्धान्त में आत्मा का अस्तित्व प्रथम तो माना नहीं है, माना भी है तो विपरीत रूप में माना है। आत्मा केवल तत्त्वज्ञान कर लेने से या क्रियाकाण्ड कर लेने से तथा अहिंसा आदि संयम एवं धर्म का आचरण करने से कैसे कर्मबन्धनों से मुक्त हो जायगा। परन्तु ज्ञानावरणीय आदि कर्मबन्धनों को न मानने से कोई भी व्यक्ति कर्मबन्धन के फलस्वरूप दुर्गति आदि से छूट नहीं सकता तथा उन कर्मों के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति (आरम्भ, परिग्रह आदि), प्रमाद, कषाय, योग आदि बन्धनों से वह तब तक अपनी आत्मा को जकड़े रहेगा, जब तक वह स्वच्छन्द-मति-कल्पित सिद्धान्तों का पल्ला (पूर्वाग्रह रूप मिथ्यात्व) नहीं छोड़ देगा और अपने मिथ्या सिद्धान्तानुसार स्वच्छन्दतापूर्वक विषयासक्ति, प्रमाद, परिग्रह, हिंसा आदि अविरति को नहीं छोड़ देगा। इसीलिए तो शास्त्रकार ने कहा है.---'एए गंथे विउक्कम्म""सत्ता कामेहि माणवा ।' तात्पर्य यह है कि आभिनिवेशिक या आभिग्रहिक मिथ्यात्व या मिथ्याग्रहवश ये अज्ञ पुरुष जब तक तथाकथित मतवादी श्रमण-ब्राह्मण सर्वज्ञ वीतराग-प्ररूपित सत्य सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर अपने माने हुए अपसिद्धान्तों को (जो कि अल्पज्ञों एवं रागी-द्वषी पुरुषों द्वारा कथित हैं) दृढ़ता से पकड़े रहेंगे, तब तक अपने कल्पित-मतानुसार चलकर इन्द्रियविषयक क्षणिक कामभोगों में आसक्त रहेंगे और मिथ्यात्व तथा अविरति के कारण कर्म-बन्धन करते रहेंगे और उनके फलस्वरूप अनेक गतियों और योनियों में जन्म-मरण के एवं तज्जनित दुख उठाते रहेंगे। १. एतावानेव पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः । भद्र' ! वृकपदं पश्य यद् वदन्त्यबहुश्रुताः।। पिव खाद च साधु शोभने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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