________________
समय : प्रथम अध्ययन--प्र
वह जगत की सृष्टि एवं प्रलय करने में समर्थ है। वह व्यापक, नित्य, सर्वज्ञ तथा नित्यज्ञानशाली शिव देवता है।
नैयायिकों का मिथ्यात्व तो इसी से प्रगट होता है कि वे सिर्फ १६ तत्त्वों के ज्ञानमात्र से मुक्ति-प्राप्ति मानते हैं । कितना सस्ता है, मुक्ति का सौदा ? त्याग, व्रत, नियम आदि कुछ करना-धरना नहीं है। ईश्वर के हाथ में मुक्ति है ही। फिर क्या आवश्यकता है, किसी को संयम-अहिंसादि धर्माचरण द्वारा कर्मबन्धन को काटने की।
अब जरा मीमांसकों की ओर भी झाँक लीजिए । मीमांसकों का मत है कि इस जगत् में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सृष्टिकर्ता, वीतराग आदि विशेषण वाला कोई भी देव नहीं है, जिसके वचनों को प्रमाण माना जाए। जब बोलने वाला अतीन्द्रियार्थ का प्रतिपादक यथार्थवक्ता कोई देव नहीं है, तब कोई भी आगम सर्वज्ञप्रणीत कैसे कहा जा सकता है ? अतः यह अनुमान स्पष्टतः किया जा सकता है कि कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह मनुष्य है; जैसे गली में चक्कर काटने वाला मूर्ख आदमी । सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करने की शक्ति किसी सदुपलम्भक प्रमाण में नहीं है। प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षावलम्बी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं कर सकता। दूसरा कोई सर्वज्ञ दिखाई भी नहीं देता कि उसके सदृश बताकर उपमान से सर्वज्ञ सिद्ध हो सके । सर्वज्ञ साधक कोई अविनाभावी पदार्थ भी नहीं दिखाई देता, जिसके बल पर अर्थापत्ति से सर्वज्ञ सिद्ध हो सके। प्रश्न होता है कि जब इन्द्रियों के अगोचर, अतीत-अनागतकालीन पदार्थ, आत्मा, पुण्य, पाप, काल, स्वर्ग-नरक, परमाणु आदि देश, काल, स्वभाव से विप्रकृष्ट अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला कोई सर्वज्ञ नामक पुरुष-विशेष या सर्वज्ञत्रणीत आगम नहीं है, तब अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान कैसे होगा ?
इसके उत्तर में मीमांसकों का कहना है कि ऐसी स्थिति में उत्पाद-विनाश से रहित नित्य, सदा स्थिर व एकरूप रहने वाले, अपौरुषेय (किसी पुरुष द्वारा
१. सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः ।
निराकरणवच्छक्या न चासीदिति कल्पना ।। २. न चागमेन सर्वज्ञस्तदीयेऽन्योन्याश्रयात् ।
नरान्तर प्रणीतस्य प्रामाण्यं गम्यते कथम् ?
--मी० श्लोक चोदनासूत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org