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________________ गाथा : सोलहवाँ अध्ययन १८६ (दंते दविए वोसट्ठकाए समणेत्ति वच्चे सिया) इन्द्रियविजयी, मुक्तिगमन के योग्य और जो शरीर के ममत्व से रहित है, उसे श्रमण करना चाहिए । भावार्थ ___ जो श्रमण पूर्वोक्त विरति आदि गुणों से विशिष्ट है. उसे आगे (यहाँ) कहे जाने वाले गुणों से भी सम्पन्न होना चाहिए । जो शरीरादि में आसक्त न रहता हुआ, अपनी तप आदि साधना के सांसारिक पल की आकांक्षा (निदान) नहीं करता है, एवं जो कर्मबन्धन के कारणभूत प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से रहित है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वष नहीं करता है, एवं जिन जिन प्रवृत्तिया से इहलोक और परलोक में आत्मा की हानि होती है, या जिन-जिन कार्यों से कर्मबन्ध होता है, जिससे आत्मा द्वेष का भाजन (कारण) बनता है, उनउन प्राणातिपात आदि कर्मबन्ध के कारणों से जो पहले से ही निवृत्त है। जो इन्द्रियविजेता है, मोक्षगमन के योग्य है, तथा शरीर के ममत्व से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिए। व्याख्या ऐसे साधक को 'श्रमण' कहने में कोई आपत्ति नहीं पहले सूत्र की व्याख्या करते समय श्रमण के हमने तीन अर्थ बताए थे। मूल में 'समण' शब्द है, उसका पहला रूप श्रमण होता है। श्रमण अपने ही पुरुषार्थ के बल पर जीता है, वह दूसरे किसी भी देवी-देव या किसी धनिक या सत्ताधीश के आगे गिड़गिड़ाता नहीं, वह कष्ट या आफत आने पर स्वयं ही सामना करता है, आत्मा स्वयं ही कर्मों से बंधा है, इसलिए स्वयं ही छूट सकता है यह उसका निश्चित सिद्धान्त है, इसीलिए यहाँ श्रमण की योग्यता के लिए 'अनिश्रित' शब्द का प्रयोग किया है। यानि वह किसी का आश्रित बनकर-परभाग्योपजीवी बनकर नहीं जीता, वह स्वयं संयम और तप में पुरुषार्थ करके आगे बढ़ेगा। दूसरा विशेषण है-'अणियाणे' वह श्रमण जो तपस्या करता है, अपने कर्मों को काटने के लिए मोक्षप्राप्ति के लिए, लेकिन वह अपनी तपस्या के साथ उसके फल के रूप से किसी भी प्रकार की इहलौकिक या पारलौकिक कामना, नामना या सांसारिक सूख-भोग की आकांक्षा (निदान) को नहीं जोड़ेगा, वह निनिदान रहेगा । इसी तरह दूसरों की आशा न रखकर श्रमण मोक्ष के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, या चारित्र के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना अपने श्रम के बल पर करेगा। इसी प्रकार श्रमण का जितना भी श्रम या तप होता है, वह कर्मक्षय के लिए होता है, जिन हिंसा आदि से कर्म-बन्धन होता हो, उन्हें वह क्यों अपनाएगा । इसीलिए यहाँ हिंसा, झूठ, मैथुन, परिग्रह आदि पाप कर्मबन्धन के कारणों (आदानों) से दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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