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________________ ६८८ सूत्रकृतांग सूत्र 'सया जए' शब्द है, जिसका एक अर्थ होता है, जो साधक षड्जीवनिकाय की रक्षा करने में सदा यत्नवान होता है, दूसरा अर्थ होता है-जो इन्द्रियों को सावध व्यापार (जो कि हिंसाजनक होता है) में जाने नहीं देता, उन पर विजय पाया हुआ है, ऐसे साधक को भी 'माहन' कहना अनुचित नहीं। आगे जो दो वाक्य हैं कि वह किसी पर क्रोध नहीं करता, अभिमान नहीं करता, वे भी उसकी परम अहिंसा के द्योतक हैं। क्योंकि क्रोध, मान, माया लोभ इन चारों कषायों का सेवन करने से भावहिंसा होती है । जो साधक क्रोधमानरूप भावहिंसा से दूर रहता है, वह माहन कहलाने योग्य है ही। इन सब दृष्टियों से या गुणों के कारण पूर्वोक्त साधक को माहन कहा जाना युक्तियुक्त है । मल पाठ एत्थवि समणे अणिस्सिए, अणियाणे, आदाणं च अतिवायं च, मुसावायं च, बहिद्ध च, कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पिज्जं च, दोसं च इच्चेव जओ जओ आदाणं अप्पणो पदोसहेऊ तओ तओ आदाणाओ पुवि पडिविरए पाणाइवाया सिया दंते दविए वोसठ्ठकाए समणेत्ति वच्चे ।।सूत्र ३॥ संस्कृत छाया अत्राऽपि श्रमणोऽनिश्रितोऽनिदान: आदानं चातिपातं च, मृषावादं च, बहिद्धञ्च, क्रोधं च, मानं च, मायां च, लोभं च, प्रेमं च, द्वषं च, इत्येव यतो यत आदानमात्मनः प्रदुषहेतन ततस्तत आदानात् पूर्वं प्रतिविरतः प्राणातिपातात् स्याद् दान्ते द्रव्यो व्युत्सृष्टकायः श्रमण इति वाच्यः ।।सूत्र ३।। अन्वयार्थ (एथवि समणे) जो श्रमण पूर्वोक्त विरति आदि गुणों से युक्त है. उसे आगे (यहाँ) कहे जाने वाले गुणों से भी सम्पन्न होना चाहिए । (अणिस्सिए अणियाणे) जो शरीर आदि में आसक्त नहीं है, तथा जो किसी भी सांसारिक फल की आकांक्षा, कामना (निदान) नहीं करता है । (आदाणं) जिनसे कर्मों का आदान------ग्रहण हो, यानी कर्मबन्ध के कारणभूत (अतिवायं च मुसावायं च बहिद्ध च) प्राणिहिंसा, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह उपलक्षण से अदत्तादान से रहित है, (कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पिज्ज च, दोसं च) इसी तरह जो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वष नहीं करता है, (इच्चेव जओ जओ अप्पणो पद्दोसहेक) इस प्रकार जिन-जिन बातों से आत्मा की इहलोक-परलोक में हानि दिखती है, तथा जो-जो अपनी आत्मा के लिए उप के कारण हैं, (तओ तओ पाणाइवाया आदाणाओ पुव्वं पडिविरए) उनउन प्राणातिपात आदि कर्मबन्ध के कारणों से पहले से ही जो निवृत्त है, तथा जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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