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आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन
मूल पाठ जं मयं सव्वसाहूणं, तं मयं सल्लगत्तणं साहइत्ताण तं तिन्ना, देवा वा अर्भावसु ते अर्भावसु पुरा धीरा, आगमिस्सा वि सुव्वया । दुन्निबोहस्स मग्गस्स, अंतं पाउकरा तिन्ने
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॥२४॥
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।।२५।। त्ति बेमि ॥
संस्कृत छाया
यन्मतं सर्वसाधूनां तन्मतं शल्यकर्त्तयम् । साधयित्वा तत्तीर्णाः, देवा वा अभूवंश्च ते ||२४|| अभूवन् पुरा धीरा, आगमिन्यपि सुव्रता 1 दुर्निबोधस्य मार्गस्यान्तं प्रादुष्करास्तीर्णाः ||२५|| इति ब्रवीमि ॥
अन्वयार्थ
( जं सव्वसाहूणं मयं ) जो समस्त साधुओं को मान्य है ( साहइत्ताण सल्लगत्तणं तं मयं ) उस पाप या पाप से उत्पन्न कर्मरूप शल्य को काटने वाले संयम की साधना करके (तिन्ना) अनेक जीव संसारसागर से तरे (पार हुए) हैं, ( देवा वा अर्भावसु ) अथवा वे देवता हुए हैं ||२४||
( पुरा धीरा अभवसु ) प्राचीनकाल में धीर (वीर) पुरुष हो चुके हैं, ( आग मिस्सा वि सुब्वया) और भविष्य में भी सुव्रत पुरुष होंगे, ( दुन्निबोहस्स मग्गस्स ) यानी दुःख से प्राप्त करने योग्य सम्यग्दर्शन -ज्ञान - चारित्ररूप मार्ग के ( अंत) अन्त को पाकर तथा ( पाउकरा ) उस मार्ग को प्रकाशित करके ( तिन्ने) संसारसागर से पार हुए हैं ।
भावार्थ
समस्त साधुओं को मान्य जो संयम है, वह पाप या पाप से उत्पन्न कर्मरूप शल्य को काटने वाला है । इसलिए अनेक साधक उस संयम की आराधना करके संसारसागर से तरे (पार हुए) हैं अथवा वे देव हुए हैं ||२४||
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प्राचीनकाल में बहुत से वीर पुरुष हुए हैं, भविष्य में भी होंगे, वे दुःख से प्राप्त करने योग्य सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग के अन्त ( सिरे) को पाकर तथा दूसरों के सामने उस मार्ग को प्रकाशित करके संसार से पार हुए हैं ।।२५।।
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