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________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन ६६६ अणुसासणं--यहाँ अनुशासन का अर्थ है-जिस शिक्षा या देशना से प्राणी मद्-असद्-विवेकी बनाये जाकर सन्मार्ग पर चढ़ाये जायें। किन्तु मोक्षाभिमुख पुरुषों द्वारा किया गया मोक्षमार्ग का इस प्रकार का अनुशासन (धर्मोपदेश) भव्य-अभव्य प्राणियों के अभिप्राय, रुचि, प्रकृति, आदत और पंस्कार के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार का और उन जीवों में भिन्न-भिन रूप से परिणत होता है। जैसे पृथ्वी की विभिन्नता के कारण मेघों से बरसा हुआ एक ही प्रकार का जल अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, वैसे ही प्राणियों की रुचि, योग्यता आदि की भिन्नता के कारण एक ही मोक्षाभिमुख जीवन्मुक्त साधक का उपदेश (अनुशासन) भिन्न-भिन्न रूप में परिणत होता है। अभव्य प्राणियों में सर्वज्ञ मोक्षाभिमुख आप्त का उपदेश उचित रूप में परिणत नहीं होता, इसमें सब उपायों को जानने वाले सर्वज्ञ अनुशासक का कोई दोष नहीं है। अभव्य प्राणियों के स्वभाव का ही यह परिणाम है कि सर्वज्ञ निर्दोष धर्मोपदेशक का वाक्य एकान्त हितकर, अमृतस्वरूप एवं समस्त द्वन्द्वों का विनाशक होने पर भी अभव्यों में यथार्थरूप में परिणत नहीं होता । यद्यपि मोक्षाभिमुख सर्वज्ञ महापुरुष के श्रीमुख से तो एक ही प्रकार की धर्म देशना निकलती है, तथापि श्रोताओं की विभिन्नता के कारण उसकी परिणति में अन्तर पड़ जाता है । इसलिए आचार्य ने कहा है-- सद्धर्म बीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवाऽपि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं, खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाता: ॥ हे लोकबान्धव ! सद्धर्मरूपी बीज को बोने में आपको कुशलता सर्वथा निर्दोष है, उसमें कोई त्रु टि नहीं होती, फिर भी आपके लिए कोई-कोई भूमि ऊसर सिद्ध होती है। अर्थात् कई जीवों पर आपका प्रयास निष्फल जाता है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि अन्धकार में विचरण करने वाले कुछ पक्षी (उल्ल आदि) ऐसे भी होते हैं, जिन्हें सूर्य की किरणें भ्रमरी के पैर की तरह काली ही नजर आती हैं। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'अणुसासणं पुढो पाणी ।' ऐसा मोक्षाभिमुख जीवन्मुक्त साधक स्त्रीप्रसंग में कदापि लीन नहीं होता, अर्थात् ग्रस्त नहीं होता, इसे उपमा देकर शास्त्रकार समझते हैं--- 'णीवारे व' । नीवार चावल आदि धान्य विशेष के कणों को कहते हैं। शिकारी (व्याध) आदि १ अनुशास्यन्ते सन्मार्गेऽवतार्यन्ते सद्-असद्विवेकतः प्राणिनो येन तदनुशासनम् - धर्मदेशनया सन्मार्गावतारणाम् ।' सूत्र० वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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