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सूत्रकृतांग सूत्र
बिलकुल निरपेक्ष हो गया है, जो केवल मोक्ष की ही बात करता है, मोक्ष का ही ध्यान, चिन्तन एवं मनन करता है, मोक्ष के अनुष्ठानों में ही दिलचस्पी लेता है, मोक्ष की ही क्रिया करता है, मोक्ष का ही उपदेश करता है। संसारमार्ग से कोई वास्ता नहीं रखता, सांसारिक सम्बन्धों से कोई लगाव नहीं रखता, उसी महामुनि को मोक्षाभिमुख कहा जा सकता है। इसी दृष्टिकोण को शास्त्रकार ६ गाथाओं में स्पष्ट करते हैं।
मोक्षाभिमुख साधक असंयमी जीवन या प्राणधारण रूप जीवन की ओर पीठ कर देते हैं, यानी उससे बिलकुल विमुख या निरपेक्ष हो जाते हैं। इस प्रकार जीने की इच्छा का त्याग करके वे ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का या चार प्रकार के घातिकर्मों का अन्त कर देते हैं । अर्थात् वे जीवन-निरपेक्ष साधक उत्तम ज्ञान-दर्शनचारित्र का अनुष्ठान करके संसारसागर के अन्तस्वरूप, समस्त द्वन्द्वों के अभावरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यद्यपि वे पुरुष समस्त दुःखों की निवृत्तिरूप या सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को अभी तक प्राप्त नहीं है, तथापि वे तप-संयम आदि की विशिष्ट धर्मक्रिया के द्वारा मोक्ष के सम्मुख हैं --चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करके दिव्य ज्ञान से युक्त एवं मोक्षपद के अभिमुख हैं ऐसे मोक्षाभिमुख साधक की पहिचान क्या है ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं- 'जे मगमणुसासई।' इस वाक्य के दो अर्थ होते हैं । एक तो यह कि जो मोक्षमार्ग पर अनुशासन---आधिपत्य करते हैं, यानी जिनका मोक्षमार्ग पर इतना असाधारण अधिकार हैं कि वे संसार-मार्ग की
ओर जरा भी मुड़ नहीं सकते, जिनकी गति-मति और प्रगति मोक्ष की ओर अटल है। दूसरा अर्थ यह है कि जो प्राणियों के हित के लिए भव्य जीवों को मोक्षमार्ग की ही शिक्षा या धर्मदेशना देते हैं। ऐसे जीवन्मुक्त साधकों को मोक्षाभिमुख समझो।
मोक्षमार्ग का ही उपदेश देने वाला मोक्षाभिमुख उत्तम साधक कैसा होता है ? इसे ही शास्त्रकार वसुमं, पूयणासए, अणासए, जए दंते दढे, आरयमेहुणे, इन विशेषणों द्वारा बताते हैं। मोक्षमार्ग का अनुशासक या मोक्षाभिमुख वही हो सकता है, जो संयमधन से युक्त हो, जो पूजा-प्रतिष्ठा, आदर-सत्कार, नामना-कामना, या प्रसिद्धि में बिलकुल दिलचस्पी न रखता हो, जो विषयभोगों की (आशय) वासना से रहित हो, इन्द्रियों और मन को दमन करने वाला हो, अपनी महाव्रत आदि की प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहता हो, अथवा देवता, नरेन्द्र आदि द्वारा वैषयिक प्रलोभन दिये जाने पर भी जो अपने संकल्प एवं यमनियम पर चट्टान-सा अविचल, अटल रहता हो, जो मैथुनादि इन्द्रिय सम्बन्धी भोगों से बिलकुल विरक्त--- निवृत्त हो । वसु धन को कहते हैं, चारित्रात्माओं के लिए संयम ही धन है। इसलिए यहाँ वसुमान का अर्थ संयम-धन से युक्त है । इन विशेषण से युक्त जीवन्मुक्त साधक ही मोक्षाभिमुख और मोक्षमार्ग का अनुशासक होता है ।
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