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सूत्रकृतांग सूत्र
मन तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द ये पाँच तन्मात्राएँ (विषय), ये तब मिलाकर १६ गण) होते हैं । इन १६ गणों से पाँच महाभूत (रूप से अग्नि, रस से जल, गन्ध से पृथ्वी, शब्द से आकाश तथा स्पर्श से वायु ये पाँच महाभूत) उत्पन्न होते हैं । ये २४ और पच्चीसवाँ तत्त्व पुरुष (आत्मा) है, जो निसंग है, निष्क्रिय है, अकर्ता है, निर्गुण है, भोक्ता है, तथा नित्य चेतन है ।' प्रकृति किसी का विकार यानी कार्य नहीं है । वह सत्त्व, रज, और तम तीनों गुणों की साम्यावस्था है । पुरुष न किसी को उत्पन्न करता है, न किसी से उत्पन्न होता है, इसलिए वह न प्रकृति है, न विकृति है। वह (आत्मा) प्रकृति आदि २४ तत्त्वों से भिन्न है । वह विषय सुख आदि को तथा इनके कारण पुण्य-पाप आदि कर्मों को नहीं करता, इसलिए वह अकर्ता है । आत्मा में करने-धरने की सामर्थ्य नहीं है । को-धीं तो प्रकृति है । क्योंकि पुरुष तो सत्त्वादि गुणों से सर्वथा रहित है, सत्त्वादि तो प्रकृति के धर्म है, इसलिये प्रवृत्ति करना प्रकृति का स्वरूप है। पुरुष (आत्मा) भोक्ता अवश्य है। वह विषयों को साक्षात नहीं भोगता (अनुभव करता), अपितु प्रकृति के विकाररूप बुद्धि दर्पण में सुख-दुखादि विषय प्रतिबिम्बित होते हैं। बुद्धि दर्पण में प्रतिबिम्बित सुख-दुखादि की छाया, अत्यन्त निर्मल पुरुष में पड़ती है, वही पुरुष का भोग है। ऐसे ही भोग के कारण पुरुष भोक्ता कहलाता है । जिस तरह जवा पुष्प आदि रंगीन वस्तु के सन्निधान से स्वच्छ स्फटिक भी लाल आदि रंग वाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह प्रकृति के संसर्ग के कारण स्वच्छ पुरुष में भी सुखदुखादि के भोक्तृत्व का व्यपदेश हो जाता है । बुद्धि रूपी माध्यम (उभयत: पारदर्शी दर्पण) में चैतन्य और विषय का युगपत प्रतिबिम्ब पड़ने से ही पुरुष अपने को 'मैं
१. मूल प्रकृतिरपिकृतिर्महदाद्यो प्रकृति विकृतियः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥ -सां० का० २. बाह्य न्द्रियाप्यालोच्य मनसे समर्पयन्ति मनः संकल्प्य अहंकारस्य अहंकारश्चाभिमत्य बुद्ध : सर्वाध्यक्ष भूतायाम् । सर्व प्रत्युपभोगं यस्मात् पुरुषस्यसाधयति बुद्धिः । सैव च विशिनष्टि पुनः प्रधान पुरुषान्तरं सूक्ष्यम् (३७) बुद्धिहि पुरुषस्य सन्निधानात तच्छायापत्या तद् पेवसर्व विषयोपभोगं पुरुषस्य साध्यति ।
-सां० का० ३. तस्मिश्चिददर्पणे स्फारे समस्ता वस्तुदृष्टयः। इमास्ताः प्रतिबिम्बित सरसीव
तटद्र मा यथा संलक्ष्यते रक्तः केवल स्फटिको जनैः रज्जकाधुमधानेन तदवतपरमपुरुषः ।
-योग वा०
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