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सूत्रकृतांग सूत्र
बताते हैं । जो साधक महापराक्रमी हैं, वे शास्त्रीय अध्ययन से एवं अनुभव से यह समझते हैं कि स्त्रीप्रसंग के फल अत्यन्त कटु होते हैं, स्त्रियाँ सुगतिपथ में अर्गलारूप हैं, संसार के महागर्त में डालने वाली हैं, अविनयों की राजधानी हैं, सैकड़ों मायाजालों से भरी हैं, महामोहिनी शक्ति हैं । इस कारण वे स्त्री-सेवन की इच्छा कदापि नहीं करते । सुन्दरियों के द्वारा प्रार्थना करने पर या हावभाव आदि से आकृष्ट करने पर भी वे उनके मोहजाल में जरा भी नहीं फँसते । ऐसे वीर साधक दूसरों से बहुत उत्कृष्ट हैं और समस्त कर्मक्षयरूप या सर्वद्वन्द्व-निवृत्तिमय मोक्ष को सर्वप्रथम प्राप्त करते हैं । अथवा जिन पुरुषों ने दुराचरणों में प्रधान स्त्री-प्रसंग का मन-वचन-काया से पूर्णतया त्याग कर दिया है, वे ही पुरुष आदिमोक्ष हैं, अर्थात् वे प्रधानपुरुषार्थभूत मोक्षपुरुषार्थ में उद्यत हैं। यहाँ आदि शब्द प्रधान अर्थ का वाचक है । ऐसे नरवीर मोक्षरूप पुरुषार्थ में केवल उद्यत ही नहीं, अपितु स्त्रीरूपी पाशबन्धन से मुक्त हो जाने के कारण समस्त पाशबन्धनों से मुक्त हैं। इस कारण वे जीवन की- असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते हैं, अथवा वे जिंदगी की परवाह नहीं करते, यानी स्त्री-प्रसंग न करने पर चाहे मौत से ही भेंट करनी पड़े, वे इसकी चिन्ता नहीं करते, अथवा विषय-भोग की इच्छा को त्यागकर उत्तम आचार-पालन में तत्पर एवं मोक्ष में एकाग्र वे साधक दीर्घकाल तक जीने की इच्छा नहीं करते ।
मूल पाठ जीवियं पिट्ठओ किच्चा, अंतं पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभूता, जे मग्गमणुसासई ॥१०॥ अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासए अणासए जए दंते, दढे आरयमेहुणो ॥११॥ णीवारे व ण लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले ।। अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं ॥१२॥ अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुज्झज्ज केणई । मणसा वयसा चेव कायसा चेव चक्खुमं ॥१३॥ से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए व अंतए । अंतेण खुरो वहई, चक्कं अंतेण लोट्टई ॥१४॥ अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिउं णरा ॥१५॥
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