________________
आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन
ε६३
लीला करके, यानी सब प्रकार के नाटक करके पुरुषों को अपने प्रणय पाश में बाँध लेती हैं । तथा स्त्रियों के लिए दो भाइयों में आपस में फूट हो जाती है, सम्बन्धियों में परस्पर वैमनस्य का मूल ही स्त्रियाँ हैं । काम से अतृप्त बहुत से राजाओं ने कामिनियों के कारण युद्ध करके राजवंशों को उजाड़ दिया है । इस प्रकार नारियों का स्वरूप जानकर महावीर साधक उनके किसी भी चक्कर में नहीं आते । एक प्रश्न है - महाव्रत तो पांच हैं, फिर दूसरे व्रतों के विषय में न कहकर चौथे महाव्रत के विषय में ही क्यों कहा ? अर्थात् अन्य आस्रवों के त्याग के बारे में न कहकर स्त्रीप्रसंगरूप मैथुन के बारे में ही क्यों कहा गया ? इसका समाधान यह है कि मैथुनसेवन सब आस्रवों में बड़ा है, और अधर्म का मूल है, महादोष का आश्रयस्थान है, इसीलिए सर्वप्रथम इसका त्याग करने का कहा गया है । बहुत से लोग स्त्रीप्रसंग में कोई दोष ही नहीं मानते, उनके भोगवादी मत का खण्डन करने के लिये भी यह पाठ है । फिर दूसरे व्रत अपवादसहित हैं, जबकि चतुर्थ महाव्रत में कोई अपवाद नहीं है । इसी बात को सूचित करने के लिए यहाँ चौथे आस्रव के त्याग का संकेत किया है ।
मूल पाठ
इत्थीओ जेण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा 1 ते जणा बंधमुक्का, नावकखति जीवियं
11211
संस्कृत छाया
स्त्रियो ये न सेवन्ते, आदिमोक्षा हि ते जनाः 1 जना बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥६॥ अन्वयार्थ
(जे इत्थीओ ण सेवंति ) जो साधक स्त्रियों का सेवन नहीं करते, (ते जणा हु आदिमोक्खा ) साधक सबसे प्रथम मोक्षगामी होते हैं । ( बंधणुम्मुक्का ते जणा जीवियं नावखति ) समस्त बन्धनों से मुक्त वे जीव जीवन ( जीने) की आकांक्षा नहीं करते ।
भावार्थ
जो वीर साधक स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे सबसे पहले मोक्षगामी होते हैं तथा सर्वबन्धनों से मुक्त वे सावक जीवन (असंयमी जीवन ) जीने की आकांक्षा नहीं करते ।
व्याख्या
स्त्री-सेवन से दूर : मोक्ष अत्यन्त निकट इस गाथा में शास्त्रकार स्त्री-सेवनरूप आस्रवद्वार के निरोध का फल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org