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________________ संठिति - संपण्ण ४८ से ५०, ५४,५६,६०,६४ ११२५;३।२; ४१२ से ४,६,७,९,३३,३६,१०/२७ से ३१, ३३, ३४ से ४४, ४६ से ५४; १८८; १६ २, ३, ६,६,१२,१३,१६,१७,२२१२, १५ संठिति (संस्थिति) ज २०४६ सू १।१५, १६, १७, २५,४११ से ४, ६, ७, ६६१; १; २; १३।१७ संठिया ( संस्थित) प २२४८, ६४; १५२ से ६,१८, ५६,२१,२६,३०,३५,२११२१ से ३७,५६ से ६२,७३,७८ से ८१,८३ : ३३।१९ से २६; ३६।८१ ज ११५, ७, ८, १८, २०, २३, ३५, ३७, ४८.५१; २।१५,१६, २०.४७, ८६, ३६,६४, ६५,१३३,१३५,१५८, १५६, १६७ २२२;४११, २३,३८,३६,४५,५५,५७,६२,६५,६६,७३.७४, ८६,६०,६१,६७,६८,१०३, १०८, ११०,१२८: १६७१११.१६६,१७८,२१३,२४२, २४५; ५।४३७ ३१ से ३३,३५,५५, १३३,१६७, १७६,१७८ सू ११५१४४१६ उ ११३ संड (षण्ड) ज ३१११७,१८८ संडिल्ल (शाण्डिल्य ) प ११९३३ संजय ( सन्नत ) ज ३११०६ संत (सत् ) प ११४७/३ ज २२६४,६६ सू २०हार संत ( शान्त) ज २६८ संत ( श्रान्त) उ ११५२,७७ संतइभाव (संततिभाव ) १८२४,६ संततिभाव ( सन्ततिभाव ) प८८१० संत ( सं :- तप्) संतप्पंति सु ६१ संतपमाण (संतान) सू ६ |१ संतय ( सन्तत ) प ७३१ संतर ( सान्तर ) प ६/४७ से ५८; ११७०,७१ संताणय ( सन्तानक) सु २०६ संता (नं तापय् ) संत वैति सू 21१ संतिकर (शान्तिकर) ज ३८द ( संथर (स्तु) संथरइ ज ३१२०,३३,५४,६३, ७१,८४,१३७,१४३,१६६ थरेंति ज ३।१११ Jain Education International संथरिता (संस्कृत्य, संस्तीयं ) ज ३१२० संयरेता (संस्कृत्य, संस्तीर्य ) ज ३।१११ संभव (संस्तव ) प ११०१।२३ संचार (संस्तार ) ज ३।११३ संचार (संस्तारक ) ज ३११११ संथार (संस्तारक ) ज ३।१११ / संथण ( सं + स्तु) संथुणइ ज ५५८ संयुणित्ता (संस्तुत्य ) ज ५।५८ संय (संस्तुत ) ज २२६६ संयुच्वमाण (संस्तूयमान) ज ३११८,६३,१८० संदमानिया ( स्यन्दमानिका) ज २।१२,३३ संधि ( सन्धि ) प १२४८ ३१ ज २९१५, १३३,४११३, २६ संधिकम (सन्धिकर्मन् ) ज ३।३५ संधिवाल ( सन्धिपाल ) ज ३१६,७७, २२२३१/६२ / संधुक्क (सं. +-धुक्ष) संधुक्केइ उ ३१५१ संधुक्केत्ता (संधुक्ष्य ) उ ३५१ संधुख ( सं + घुक्ष) संधुक्खति ज ५।१६ संघुषित्ता (संधुदय ) ज ५।१६ संनिवित्त ( सन्निक्षिप्त) ज ११४० संनिचित (सन्निचित) उ ५ ५ संनिवडिय (संनिपतित ) उ ११२३, ६१ संनिविट्ठ (संनिविष्ट) ज ४।२७; ५३४ संनिसण ( संनिषण्ण) उ ३१६१ संपत्त ( संप्रयुक्त ) ज ३१३५,८२,१०३, १७८, १८७,२१८ १०५७ संपखालग ( सम्प्रक्षालक) उ३१५० संपग्ाहिय ( सम्प्रगृहीत) ज ३३३५, १७८ संपद्धित ( सम्प्रस्थित ) प १६।२२ संपट्ठिय ( सम्प्रस्थित) ज ३।१७८, १७६,२०२, २१७५।४३ संपणदत्त (संप्रणदित ) प २३०, ४१ संपदिय (संप्रणदित ) प २३३१ संपादित (संप्रणादित ) ज ११३१ संपण (संपन्न) उ ११२; ३|१५६; ५|२६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003574
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Surpannatti Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages505
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size9 MB
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