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________________ १६ में प्रयुक्त हस्तलिखित आदर्शों तथा मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित आगमों में 'गण्ठी' पाठ ही उपलब्ध है। इस पाठ का शोधन जीवीजीवाभिगम और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के आधार पर किया गया है। इसके लिए प्रस्तुत आगम का ११३८ का पाद-टिप्पण द्रष्टव्य है। दुसरा उदाहरण है-.-'तिट्टाणवडिते' । इसके स्थान पर कुछ आदशों में 'चउट्ठाणवडिते' पाठ मिलता है। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने भी 'चउट्ठाणवडिते' पाठ स्वीकार किया है। किन्तु हमने 'तिट्ठाणवडिते' पाठ वृत्ति के आधार पर मान्य किया है। इसका समर्थन पण्णवणा ५११५, ११६, की वृत्ति से होता है। प्रज्ञापनावृत्ति पत्र १९५-१९६ तथा पण्णवणा ५॥११५ का पाद-टिप्पण द्रष्टव्य है। जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति इसके पाठ-शोधन में सात प्रतियों और तीन टीकाओं का उपयोग किया गया है। उपाध्याय शान्तिचन्द्र की वृत्ति तथा हीरविजय वृत्ति में अनेक पाठान्तर और उनकी टिषणियां मिलती हैं । देखें ---४११५६ का पाद-टिप्पण। यह पाठान्तर-बहुल आगम है। उपाध्याय शान्तिचन्द्र ने वाचना-भेद की विस्तृत चर्चा की है। उदाहरण के लिए ११२ का पाद-टिप्पण द्रष्टव्य हैं। कहीं-कहीं अशुद्ध पाठ के कारण व्याख्या भी अशुद्ध हुई है। देखें---४।४६ का पाद-टिप्पण । चन्द्रप्राप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति इनके पाठ-शोधन में पांच हस्तलिखित आदशों तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्तियों का उपयोग किया गया है। एक आदर्श का क्वचित् प्रयोग किया गया है। चन्द्रप्रज्ञप्ति का पूर्ण रूप उपलब्ध नहीं है। उसका सूर्यप्रज्ञप्ति से जो भेद है वह एक परिशिष्ट में दिया गया है। कुछ हस्तलिखित आदर्श चन्द्रप्रज्ञप्ति के नाम से उपलब्ध हैं। उनके पाठ-भेद सूर्यप्रज्ञप्ति के पाद-टिप्पण में दिए हुए हैं। निरयावलिका निरयावलिका आदि पांच वर्गों के पाठ-शोधन में तीन हस्तलिखित आदशों तथा श्रीचन्द्रसूरिकृत वृत्ति का प्रयोग किया गया है। १. शान्तिचन्द्रीयवृत्ति पत्र ६७ : पाठान्तरं-वाचनाभेदस्तगतपरिमाणान्तरमाह-मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्ट योजनानि विष्कम्भेन उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन, अत्रापि विष्कम्भायामतः साधिकत्रिगुणं मूलमध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोक्तं सुबोधं । अत्राह परः- एकस्य वस्तुनो विष्कम्भाविपरिमाणे द्वैरुप्यासम्भवेन प्रस्तुतग्रन्थस्य च सातिशयस्थविरप्रणीतत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः ? यदेव स्यापि ऋषभकटपर्वतस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादि पुनस्तत्रैवास्य द्वादशादियोजनविस्तृतत्वादीति, सत्यं, जिनभट्टारकरणां सर्वेषां क्षायिकज्ञानवतामेकमेव मतं मूलतः पश्चात्तु कालान्तरेण विस्मृत्यादिनाऽयं वाचनाभेदः, यदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभिज्योतिष्करण्डकवृत्तौ - "इह स्कन्दिलाचार्य प्रवृ (तिप) तौ दुषमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुभिक्षातिकमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघमेलापकोऽभवत्, तद्यथा---एको वलभ्यामेको मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेद" इत्यादि, ततोऽत्रापि दुष्करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञानिभिरनभिनिविष्ट मतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरुरिति न काचिदनुपपत्तिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003572
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Jambuddivpannatti Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages617
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size12 MB
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