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देव
प्रथम समय त्रीन्द्रिय अप्रथम समय त्रीन्द्रिय
प्रथम समय चतुरिन्द्रिय, अप्रथम समय चतुरिन्द्रिय प्रथम समय पञ्चेन्द्रिय, अप्रथम समय पञ्चेन्द्रिय ।
नौवीं प्रतिपत्ति के आठवें सूत्र से अन्त तक सर्व जीवाभिगम का निरुपण किया गया है। वह वर्गीकरण भिन्न दृष्टि से किया गया है, उदाहरणस्वरूप – जीव के दो प्रकार सिद्ध और असिद्ध ।
जीव के तीन प्रकार सम्यकदृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सभ्यमिध्यादृष्टि ।
प्रस्तुत आगम में अवान्तर विषय विपुल मात्रा में उपलब्ध है। इसमें भारतीय समाज और जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है । स्थापत्य कला की दृष्टि से पद्मव रवेदिका और विजयद्वार का वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण है !
प्रस्तुत आगम मे आदेशों का संकलन मिलता है। एक विषय में स्थविरों के अनेक मत थे । मत के लिए आदेश शब्द का प्रयोग किया गया है । प्रस्तुत आगम उत्तरवर्ती ग्रन्थ है । इसलिए इसमें स्थविरों के अनेक मतों का संकलन मिलता है । वृत्तिकार ने आदेश का अर्थ प्रकार किया है । " तात्पर्यार्थ में अनेक मतों का संकलन भी सिद्ध होता है । जीवा० २ /२० में चार आदेशों का संकलन है । २/४८ में पांच आदेश उपलब्ध हैं । वृत्तिकार ने लिखा है कि पांच आदेशों में कौन सा आदेश समीचीन है, इसका निर्णय अतिशय ज्ञानी ही कर सकते हैं । सूत्रकार स्थविरों के समय में दे अतिशयज्ञानी उपलब्ध नहीं थे इसलिए सूत्रकार ने इस विषय में कोई निर्णय नहीं किया, केवल उपलब्ध आदेशों का संकलन कर दिया । '
रचनाकार
प्रस्तुत आगम की रचना स्थविरों ने की है। इसका आगम के प्रारंभ में स्पष्ट निर्देश है । व्याख्या ग्रन्थ
प्रस्तुत आगम की दो व्याख्याएं उपलब्ध हैं एक आचार्य हरिभद्रकृत और दूसरी आचार्य मलयगिरिकृत | आचार्य हरिभद्रकृत टीका संक्षिप्त है, मलयगिरिकृत टीका बहुत विस्तृत है । मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में 'इतिवृद्धाः' तथा मूलटीका, मूलटीकाकार और चूर्णि का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है ।
१. जीवजीवाभिगम वृ० प० ५३ "आदेश शब्द इह प्रकारवाची" आबेसोत्ति पगारो "इतिवचनात्, एकेन प्रकारेण, एक प्रकारमधिकृत्येतिभावार्थ: "
२. वही वृ० प० ५६ "अमीषां च पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशय ज्ञानिभिः सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि-संपन्नैर्वा कर्तुं शक्यते, ते च सूत्रकृतप्रतिपत्तिकाले नासीरन्निति सूत्रकृम्न निर्णयं कृतवानिति" ।
३. जीवाजीवाभिगमे १/१ - - ' इह खलु जिणमयं जिणाणु मयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं जिनपरूवियं जिणक्खायं जिणाणु चिष्णं जिणपण्णत्तं जिनदेसियं जिणपसत्यं अणुवीर तं सद्दहमाणा तं परियमाणा तं रोएमाणा थेरा भगवन्तो जीवाजीवाभिगमे णामज्झयणं पण्णवसु" ।
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