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विषय- वर्णन की दृष्टि से मलयगिरि की व्याख्या उचित है और उसके आधार पर उनके द्वारा स्वीकृत नाम भी अनुचित प्रतीत नहीं होता, किन्तु शब्दशास्त्रीय दृष्टि से उनके द्वारा स्वीकृत नाम समालोच्य है | पं० बेचरदासजी ने उसकी समालोचना की है। उनका तर्क है- 'प्रश्न शब्द का प्राकृत रूप पण्ह' और 'पसिण' होता है, किन्तु 'पसेण' नहीं होता । उच्चारण शास्त्र की वैज्ञानिक रीति से 'परिण' तक का परिवर्तन ही उचित नहीं लगता है । प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से भी 'पण' रूप घटित नहीं होता । इसे आर्ष रूप मान तो फिर शुद्धाशुद्ध प्रयोग की मर्यादा ही टूट जाएगी ।"
पण्डितजी का तर्क बलवान् है फिर भी अमीमांस्य नहीं है। हमारी दृष्टि के अनुसार-[१] 'पसेणिय' का मूल रूप 'पसिणिय' [सं० प्रश्नित ] है । इकार का एकार होना उच्चारण शास्त्र की दृष्टि से असंगत नहीं है । यह परिवर्तन अनेक स्थानों में मिलता है । उदाहरण के लिए कुछ शब्द यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं:
पिणीणं
णिव्वाणं
जिन्बुती
तिगिच्छियं
बिटा
f
तिकालं
पेहुणेणं
व्वाणं
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णेती
तेगिच्छियं
बेंटा
बे
[दे० ]
[सं० निर्वाणम् ]
[सं० निर्वृत्तिः ]
[सं० चिकित्सितम् ]
[सं०] वृत्तम् ]
तेकाल
[२] आगम-सूत्रों तथा प्राचीन ग्रन्थों में 'रायपसे जिय' पाठ उपलब्ध है । 'रायपसेणइय' पाठ कहीं भी उपलब्ध नहीं है। नंदी सूत्र में 'रायपसेणिय' नाम मिलता है । इसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। पाक्षिक सूत्र में भी 'रायप्पसेणिय' पाठ मिलता है ।' पाक्षिक सूत्र के अवचूरिकार ने भी इसका संस्कृत रूप 'राजप्रतियं' किया है ।'
[सं० द्वि]
[सं० त्रिकालम् ]
[३] प्रसेनजित् का प्राकृत रूप 'पसेणइय' बनता है। स्थानांग में पांचवें कुलकर का नाम 'पसेणइय' है । * अन्यत्र भी अनेक स्थलों में यह मिलता है ।
प्रस्तुत सूत्र का विषयवस्तु यदि राजा प्रसेनजित् से संबद्ध होता तो इसका नाम 'रायपसेणइयं' होता, किन्तु इसकी विषयवस्तु राजा पएसी से संबद्ध है । इस दृष्टि से भी 'रायपसेणइय' नाम संगत नहीं है। दीघनिकाय में पायासी राजा प्रसेनजित् के सामंत रूप में उल्लिखित है । किन्तु प्रस्तुत सूत्र में राजा प्रसेनजित् का कोई उल्लेख नहीं है । अतः रायपसेणइयं' नाम का कोई आधार प्राप्त नहीं होता ।
१. रायपसेणइयं, प्रवेशक, पू० ६
२. पाक्षिकसूत्रम् पु० ७६
३. पाक्षिकसूत्रम्, अथचूरि, पृ० ७७
राशः प्रदेशि नाम्नः प्रश्नानि तान्यधिकृत्य कृतमध्ययनम् - राजप्रश्नियम् ।
४. ठाणं, ७७६२
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