________________
२४
प्रत्येक पत्र की लम्बाई १०॥ इंच व चौड़ाई ४॥ इंच है। प्रत्येक पत्र में १३ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में ४६-४८ अक्षर हैं । यह प्रति वि०म० १५६६ की लिखी हुई है। प्रति के अन्त में निम्न पुष्पिका है
छ।। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः श्री संघस्य च ।। सं. १५६६ वर्षे चैत्र सुदि २ तिथौ अद्येह श्रीमदणहिल्लपत्तने श्री बृहतुखरतरगच्छे श्रीवर्धमानसूनिसंताने श्री जिनभद्रसुरिपट्टानुक्रमेण श्री जिनहंससुरिराज्ये वाचनाचार्यजयाकारगणिशिष्य वा० धर्मविलासणिवाचनार्थ भ० वस्तुपालभार्यया लीली श्रावकया। पुत्ररत्न भ० सालिगपुमुखपरिवार स श्रीकया सू श्रेयार्थ च लेखितं श्री राजप्रश्नीयोपांग।
ब) यह प्रति पूनमचन्द बुद्धमल दुधोडिया, छापर (राजस्थान) के संग्रह से प्राप्त है। इस प्रति के ४२ पत्र तथा ८४ पृष्ठ हैं। प्रत्येक पत्र की लम्बाई १२ इंच तथा चौड़ाई ५ इंच है। प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ४० से ५४ तक अक्षर हैं। प्रथम दो पत्रों में २ चित्र हैं। लिपि सुन्दर पर अशुद्धि बहुल है। यह प्रति अनुमानित सोलहवीं शताब्दि की है।
यह प्रति भी उपरोक्त दुधोड़िया, छापर (राजस्थान) के संग्रह से प्राप्त है इस प्रति के पत्र ४१ व पृष्ठ ८२ हैं। प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ५७ से ६० अक्षर हैं। लिपि साधारण पर शुद्ध है। अन्त में लिखा है-लिपि सं० १६६५ वर्षे कार्तिक मासे शुक्ल पक्षे सप्तमी शुक्र बब्बेरकपुरे पं० लब्धि कल्लोलगणिनालेखि ।
(a) यह प्रति 'श्रीचन्द गणेशदास गधैया पुस्तकालय' सरदारशहर से प्राप्त है । इसके ५२ पत्र तथा १०४ पृष्ठ हैं ! प्रत्येक पत्र की लम्बाई १०॥ इंच तथा चौड़ाई ४।। इंच है। प्रत्येक पत्र में १७ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में ६५ से ७० तक अक्षर हैं । यह प्रति वि० सं० १६०५ में लिखी हुई है। इसकी पुष्पिका निम्नोक्त हैं
इति मलयगिरिविरचिता राजप्रश्नीयोपांगवृत्तिका समथिता ॥ समाप्तमिति । प्रत्यक्षरगणनया ग्रन्थाग्रं ॥छ।। ।।छ। प्रत्यक्षर गणनातो ग्रन्थमानं विनिश्चितं । सप्तत्रिशत्शतान्यत्र । श्लोकानां सर्व संख्यया: ।। ग्रन्थाग्रं श्लोक ३७०० ॥छ।। श्री ॥ संवत् १६०५ वर्षे श्रावण सुदि १३ भौमे पतन वास्तव्यं ।। पं० रद्रासुजिगनाथ लिखितं ।। शुभं भवतु ।। जीवाजीवाभिगमे
प्रस्तुत सूत्र का पाठ निर्णय हस्तलिखित आदर्शों तथा वत्ति के आधार पर किया गया है।
मलयगिरि की वृत्ति प्राचीन आदर्श के आधार पर निर्मित है इसीलिए ताडपत्रीय आदर्श और वत्ति का पाठ समान चलता है। इस विषय में ३१२१८, ४५७, ५७८, ८२६ सूत्र तथा इनके पाद टिप्पण द्रष्ट व्यं है । अर्वाचीन आदों में पाठ का इतना बड़ा अन्तर मिलता है यह बहुत ही विमर्शनीय और अन्वेषणीय है।
जीवाजीवाभिगम के आदर्शों में पाठ की एक समानता नहीं रही है इसकी सूचना जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वत्तिकार शान्तिचन्द्र ने भी दी है।
१. जम्बुद्वीपप्राप्ति वृत्ति पत्र १०८
अत्र चाधिकारे जीवाभिगमसूत्रादर्श क्वचिदधिकपदम् अपि दृश्यते तत्तु वृत्तावत्याख्यातं स्वयं पर्यालोच्यमानमपि न नार्थप्रदमिति न लिखितं, तेन तत् सम्प्रदायादवगन्तव्यं, तमन्तरेण सम्यक पाठशुद्धैरपि कर्तुमशक्यत्वादिति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org