SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका नायाधम्मक हाओ नाम-बोध प्रस्तुत आगम द्वादशाङ्गी का छठा अंग है । इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम 'नाया' और दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम 'धम्मकहाओ' है । दोनों श्रुतस्कन्धों का एकीकरण करने पर प्रस्तुत आगम का नाम 'नायाधम्मकहाओं' बनता है। 'नाया' (ज्ञात) का अर्थ उदाहरण और 'धम्मकहाओ' का अर्थ धर्म-आख्यायिका है । प्रस्तुत आगम में चरित और कल्पित - दोनों प्रकार के दृष्टान्त और कथाएं हैं ।' जयधवला में प्रस्तुत आगम का नाम 'नाहधम्मकहा' (नाथधर्मकथा) मिलता है | नाथ का अर्थ है स्वामी । नाथधर्मकथा अर्थात् तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित धर्मकथा । कुछ संस्कृत ग्रन्थों में प्रस्तुत आगम का नाम 'ज्ञातृधर्मकथा' उपलब्ध होता है । आचार्य अकलंक ने प्रस्तुत आगम का नाम 'ज्ञातृधर्मकथा' बतलाया है।' आचार्य मलयगिरि और अभयदेवसूरि ने उदाहरण प्रधान धर्मकथा को ज्ञाताधर्मकथा कहा है । उनके अनुसार प्रथम अध्ययन में 'ज्ञात' और दूसरे अध्ययन में 'धर्म - कथाएं' । दोनों ने ही ज्ञात पद के दीर्घीकरण का उल्लेख किया है। ' श्वेताम्बर साहित्य में भगवान् महावीर के वंश का नाम 'ज्ञात' और दिगम्बर साहित्य में 'नाथ' बतलाया गया है। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने प्रस्तुत आगम के नाम के साथ भगवान् महावीर का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार 'ज्ञातृधर्मकथा' या 'नाथधर्मकथा' १. समवाओ, पणगसमवाश्रो, सूत्र ६४ २. तवार्थवार्तिक १२०, पृ० ७२ : ज्ञातृधर्मकथा | ३. (क) नंदीवृत्ति, पत्र २३०,३१ : झातानि - उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथाः, अथवा ज्ञातानि ज्ञाताध्ययनानि प्रथम श्रुतस्कन्धे, धर्मकथा द्वितीयश्रुतस्कन्धे यासु ग्रन्थपद्धतिषु (ता) ज्ञाताधर्मकथाः पृषोदरादित्वात्पूर्वपदस्य दीर्घान्तता । (स्व) समवायांगवृत्ति, पत्न १०८ : ज्ञातानि -- उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा, दीर्घत्वं संज्ञात्वाद् अथवा प्रथमश्रुतस्कंधो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि द्वितीयस्तु तथैव धम्मंकथाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003565
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Anuttaraovavai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages118
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuttaropapatikdasha
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy