SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ पर की है, देखें —नायाधम्मकहाओ पृष्ठ १२२ का सातवां पाद-टिप्पण । इस प्रकार के आलोच्य पाठ नायाधम्मकाओ १।१२/३६, १ १६ २१, १/१६/४६ में भी मिलता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र १०/४ में 'कायवर' पाठ मिलता है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'काचवर' – प्रधान काच दिया है, किन्तु यह पाठ शुद्ध नहीं है । लिपि दोष के कारण मूलपाठ विकृत हो गया । निशीथाध्ययनके ग्यारहवें उद्देशक (सूत्र १ ) में 'कायपायाणिवा और वइरपायाणिवा' दो स्वतन्त्र पाठ हैं। वहां भी पात्र का प्रकरण है और यहां भी पात्र का प्रकरण है। काँचपात्र और वज्रपात्र दोनों मुनि के लिए निषिद्ध हैं । इस आधार पर यहां भी 'वर' के स्थान पर 'वइर' पाठ का स्वीकार औचित्यपूर्ण है । लिपिकाल में इस प्रकार का वर्ण विपर्यय अन्यत्र भी हुआ है । 'जात' के स्थान पर 'जाव' तथा 'पचकमण' के स्थान पर 'एवंक्रमण' पाठ मिलता है। पाठ-संशोधन में इस प्रकार के अनेक विचित्र पाठ मिलते हैं । उनका निर्धारण विभिन्न स्रोतों से किया जाता है । प्रतिपरिचय १. नायाधम्मकहाओ - क. ताडपत्रीय ( फोटोप्रिंट) मूलपाठ -- यह प्रति जेसलमेर भंडार से प्राप्त है । यह अनुमानतः बारहवीं शताब्दी की है। ख. नायाधम्मकहाओ (पंचपाठी) मूल पाठ वृत्ति सहित - यह प्रति गया पुस्तकालय, सरदारशहर की है । पत्र के चारों ओर हासियों (Margin) में वृत्ति लिखी हुई है। इसके पत्र १८६ तथा पृष्ठ ३७२ हैं । प्रत्येक पत्र १०३ इंच लम्बा तथा ४१ इंच चौड़ा है । पत्र में मूलपाठ की १ से १३ तक पक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ३२ से ३८ तक अक्षर हैं। प्रति स्पष्ट और कलात्मक है । बीच में तथा इधर-उधर वापिकाएं हैं। यह अनुमानतः १४-१५ शताब्दी की होनी चाहिए । प्रति के अंत में टीकाकार द्वारा उद्धृत प्रशस्ति के ११ श्लोक हैं । उनमें अन्तिम श्लोक यह है - एकादशसु गतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानां । अणहिलपाटकनगरे भाद्रवद्वितीयां पज्जुसणसिद्धयं ॥ १ ॥ समाप्तेयं ज्ञाताधर्म प्रदेशटीकेति ॥ छ ॥ ४२५५ ग्रंथाग्रं ।। वृत्ति । एवं सूत्र वृत्ति १७५५ ग्रंथाग्रं ॥ १ ॥छ ग. नायाधम्मकहाओ ( मूलपाठ ) यह प्रति गधेया पुस्तकालय, सरदारशहर की है। इसके पत्र ११० तथा पृष्ठ २२० हैं । प्रत्येक पत्र १०३ इंच लम्बा तथा ४३ इंच चौड़ा है । प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में ४८ से ५३ तक अक्षर हैं । प्रति जीर्ण-सी है। बीच में बावड़ी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003563
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Uvasagdasao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_upasakdasha
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy