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सूयगडो
हमने सूत्रकृत का पाठ किसी एक आदर्श को मान्य कर स्वीकार नहीं किया है। उसका स्वीकार पाठ-संशोधन में प्रयुक्त आदर्शो, चूणि तथा वृत्ति के पाठों के तुलनात्मक अध्ययन तथा समीक्षापूर्वक किया गया है।
. प्राचीनकाल में लिखने की पद्धति बहुत कम थी। प्रायः सभी ग्रन्थ कंठस्थ परम्परा में सुरक्षित रहते थे । इसीलिए घोषशुद्धि (उच्चारणशुद्धि) को बहुत महत्व दिया जाता था ! शिष्यों की घोषशुद्धि करना आचार्य का एक कर्तव्य था। दशाश्र तस्कन्ध सूत्र में लिखा है'--'घोषशुद्धि कारक होना आचार्य की एक संपदा है।' पाठ और अर्थ के मौलिक रूप की सुरक्षा के लिए विशेष प्रकार की व्यवस्था थी। छेदसूत्रों से उसकी पूर्ण जानकारी मिलती है।
ज्ञानाचार के आठ प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें तीन आचारों का उक्त व्यवस्था से सम्बन्ध है । वे ये हैं
१. व्यंजन--सूत्रपाठ की भाषा, मात्रा, बिन्दु और शब्दों को यथावत् बनाए रखना। २. अर्थ---सूत्र के आशय को यथावत् बनाए रखना । ३. व्यंजन-अर्थ-~-सूत्र और अर्थ---दोनों को मौलिक रूप में सुरक्षित रखना।
चूर्णिकार ने उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है:--'धम्मो मंगलमूक्किटठं'---यह प्राकृत भाषा है। इसका 'धर्मो मंगलमुत्कृष्टम्' इस प्रकार संस्कृत में पाठ करना भाषागत व्यंजनातिचार हैं।
'सव्वं सावज जोगं पच्चक्खामि'-इसकी मात्रा बदलकर जैसे---सवे सावज्जे जोगे पच्चक्खामि', उच्चारण करना मात्रागत व्यंजनातिचार है। 'णमो अरहंतागं' का 'णमो अरहताण' इस प्रकार प्राप्त बिन्दु को छोड़कर उच्चारण करना, णमो अरहताणं' इस प्रकार 'र' के साथ अप्राप्त बिन्दु का उच्चारण करना---यह बिन्दुगत व्यंजनातिचार है।
१. दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ४। २. निशीथभाष्य, गाथा ८, भाग-१, पु०६:
काले विणये बहुमाने, उवधाने सहा अणिण्हवणे ।
वंजण अत्थतदुभए, अट्ठविधो णाणमायारो॥ ३. वही, गाथा १७, भाग १, पृ. १२ ।
सक्कयमत्ताबिंदू, अण्णाभिधाणेण वा वितं प्रत्यं ।
बजेति जेण प्रत्यं, वंजणमिति भण्णते सुत्तं ॥ ४, निशीथभाष्य चूणि, भाग १, पृ० १२ ।
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