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॥श्रीः॥ ब ॥श्रीः॥ श्री पदुमकी[पाठकेभ्यः पं० महिमसारगणिना प्रतिरियं प्रदत्ता स्वपुण्यार्थं ॥ (व०) सूत्रकृतांग वृत्ति मुद्रित श्री गोडीजी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढी। (चू०) सूत्रकृतांग चूणि मुद्रित श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्वर संस्था रतलाम ।
ठाणं
प्राकृत में एक शब्द के अनेक रूप बनते हैं। आगमों में वे अनेक रूप प्रयुक्त भी हैं। आगम का संपादन करने वाले कुछ विद्वानों का यह आग्रह रहा है कि पाठ-संपादन में विभिन्न रूपों में एकरूपता लानी चाहिए। हमने पाठ-संपादन की इस पद्धति को मान्य नहीं किया है। यद्यपि प्रस्तुत सूत्र में 'नकार' और 'णकार' की एकता स्वीकार कर सर्वत्र ‘णकार' का ही प्रयोग किया है; पर रूप-भेदों में एकता लाने के सिद्धान्त का सर्वत्र उपयोग नहीं किया है। ३१३७३ में 'सुगती' और 'सुरगती'-ये दो रूप मिलते हैं। ३१३७५ में 'सोगता', 'सुगता' और 'सुग्गता-ये तीन रूप मिलते हैं। हमने उन्हें यथावत् रखा है। ग्रंथकार प्रयोग करने में स्वतन्त्र हैं। वे एकरूपता के नियम से बंधे हुए नहीं हैं, फिर संपादन कार्य में एकरूपता का प्रयत्न अपेक्षित नहीं लगता।
आगमों में अनेक भाषाओं और वर्णादेशों के विविध प्रयोग मिलते हैं। उनमें एकरूपता लाने पर विविधता की विस्मृति की संभावना हो सकती है। 'वाएणं', 'कायसा'-ये दोनों रूप प्रयुक्त होते हैं। 'अंडजा' के 'अंडया' और 'अंडगा' तथा 'कर्मभूमिजा' के 'कम्मभूमिया' और 'कम्मभूमिगा'ये दोनों रूप बनते हैं। जिस स्थल में जो रूप प्राप्त हो उस स्थल में उसे रखना संपादन की त्रुटि नहीं है।
प्रति परिचय (क) ठाणांग मूलपाठ (हस्तलिखित)
गधैया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त । इसके पत्र ७४ तथा पृष्ठ १४८ हैं। प्रत्येक पत्र में १२ पंक्तियां, प्रत्येक पंक्ति में ६० के करीब अक्षर हैं। यह प्रति १०॥ इंच लम्बी ४॥ इंच चौड़ी है । प्रति प्रायः शुद्ध है । लिपि संवत् १५६५ । प्रशस्ति में लिखा है
शुभं भवतु ॥छ।। श्री खरतरगच्छे श्री सागरचन्द्राचार्यान्वये वा० दयासागरगणिभिः स्वशिष्य वा० ज्ञानमन्दिरगणिवाचनार्थं ग्रंथोऽयं लेखयांचक्र ।। संवत् १५६५ वर्षे जिनश्रीवर्धमानसंवत् २०३५ वर्षे चैत्रप्रयमाष्टम्यां श्री वोहिथिरागोत्रे मंत्रीश्वरवच्छराज नंदन प्रधान शिरोमणि मं० वरसिंहगेहिन्या मंत्रिणी वीऊलदेवी श्री विकया पुत्र मं० मेघराज मं० भोजराज मं० नगराज मं० हरिराज मं० अमरसिंह म० डूंगरसिंह पुत्रिका वीराई
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