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आयारो
सम्पादकीय
आचारांग का जो पाठ हमने स्वीकार किया है, उसका आधार कोई एक आदर्श नहीं है । हमने पाठ का स्वीकार प्रयुक्त आदर्शी, चूर्ण और वृत्ति के संदर्भ में समीक्षापूर्वक किया है। 'आयारों' के प्रथम अध्ययन के दूसरे उद्देशक के तीन सूत्र ( २७ - २६) शेष पांच उद्देशकों में भी प्राप्त होते हैं । पाठ-संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों तथा आचारांग वृत्ति में यह प्राप्त नहीं है । आचारांग चूर्णि में 'लज्जमाणा पुढो पास' (आयारो, ११४०) सूत्र से लेकर 'अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए' (आयारी, ११५३) तक ध्रुवकण्डिका ( एक समान पाठ) मानी गई हैं' ।
चूर्ण में प्राप्त संकेत के आधार पर हमने द्वितीय उद्देशक में प्राप्त तीन सूत्र ( २७ - २६ ) शेष पांचों उद्देशकों में स्वीकृत किए हैं।
आठवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक (सू० २१ ) की चूर्णि' में 'कुंभारायतणंसि वा' के स्थान पर अनेक शब्द उपलब्ध होते हैं, जैसे- 'उवट्टणगिहे वा, गामदेउलिए वा, कम्मगारसालाए वा, तंतुवायगसालाए वा, लोहगारसालाए वा ।' चूर्णिकार ने आगे लिखा है- 'जचियाओ साला सव्वाओ भाणियव्वाओ' ।'
यहां प्रतीत होता है कि 'कुंभारायतणंसि वा' शब्द अन्य अनेक शाला या गृहवाची शब्दों से युक्त था, किन्तु लिपि-दोष के कारण कालक्रम से शेष शब्द छूट गए। चूर्णि के आधार पर पाठ-पद्धति का निश्चय करना संभव नहीं था इसलिए उसे मूलपाठ में स्वीकृत नहीं किया गया ।
हमने संक्षिप्त पाठ की पूर्ति भी की है। पाठ-संक्षेप की परम्परा श्रुत को कंठाग्र करने की पद्धति और लिपि की सुविधा के कारण प्रचलित हुई। पं० वेचरदास दोशी ने ८-१२-६६ को आचार्यश्री तुलसी के पास एक लेख भेजा था । उसमें इस विषय पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने
१. देखें-- आयारो, पृ० ७ पादटिप्पण ७ ० ६ पादटिप्पण ३०;
पृ० १० पादटिप्पण १ पृ० १२ पादटिप्पण १ .०१४ पादटिप्पण ८ २. प्राचारांग चूर्णि, पृ० २६० २६१ ।
पृ० ११ पादटिप्पण ६; पृ० १३ पादटिप्पण ५; ० ९५ पादटिप्पण १;
३. वही, पृ० २६१ ।
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