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समग्र रूप में भी प्राप्त थे । वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है। लिपिकर्ता अनेक स्थलों में अपनी सुविधानुसार पूर्वागत पाठ को दूसरी बार नहीं लिखते और उत्तरवर्ती आदर्शों में उनका . अनुसरण होता चला जाता । उदाहरण स्वरूप---रायपसेणइय सूत्र में 'सविढीय अकालपरिहीणा' (स्वीकृत पाठ-हीण) ऐसा पाठ मिलता है। इस पाठ में अपूर्णता-सूचक संकेत भी नहीं है। 'सव्विड्डीए'
और 'अकालपरिहीणं' के मध्यवर्ती पाठ की पूर्ति करने पर समग्र पाठ इस प्रकार बनता है'सव्विड्डीए सव्वजुत्तीए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सम्वविभूसाए सब्व विभूइए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फ वत्थ-गंध-मल्लालंकरण सम्वदिव्वतुडियसहसन्निवाएणं महया इड्ढीए महया जुइए महया बलेणं मह्या समुदएणं महया वरतुडियजमगसमयपदुप्पवाइयरवेणं संख-पणव-पडह-भेरि-मल्लरिखरमुहि-हुहुक्क-मुरय-मुइंग-दुंदुभि-निग्धोस-नाइयरवेणं णियग परिवाल सद्धि संपरिबुडा साइं-साई जागविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं ।'
आयार-चूला ५११४ में ‘महद्धणमोल्लाई' तथा १५११६ में ‘महव्वए' के आगे भी अपूर्णता सूचक संकेत नहीं हैं।
प्रमादवश कहीं-कहीं अपूर्णता सूचक 'जाव' का विपर्यय भी हुआ है, यथा--- फास्यं..""""""लाभे संते जाव पडिगाहेज्जा । (आयारचूला १११०१) बहकंटगं...........""लाभे संते जाव णो........... ! (आयारचूला १११३४)
समर्पण-सूत्र--
संक्षिप्त पद्धति के अनुसार आयार वूला में समर्पण के अनेक रूप मिलते हैंजाव-अकिरियं जाब अभूतोवघाइयं (४.११) तहेव - अक्कोसंति वा तहेव तेल्लादि सिणाणादि सीओदगवियडादि णिगिणाइ य
(७११६-२०)
अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव तिरिच्छच्छिन्नं तहेव (७।३४,३५) एवं—एवं णायव्वं जहा सद्दपडियाए सव्वा वाइत्तवज्जा रुवपडियाए वि (१२।२-१७) जहा---पाणाई जहा पिंडेसणाए (५५५) संख्या--थूणंसि वा (४) (७।११)
असणं वा (४) (१११२) से भिक्खू वा २
१. औपपातिक वृत्ति, पन १७७ :
पुस्तकान्तरे समग्रमिदं सूत्रद्वयमस्त्येदेति । २. देखे--पं० बेचरदास दोशी द्वारा संपादित 'रायपसेणइयं,
पृष्ठ ७३ ।
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