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हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टीकाकार ( अभयदेव सूरि ) के सामने अनेक कठिनाइयां थीं । उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है :-'
१. सत् संप्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-परम्परा ) प्राप्त नहीं है ।
२, सत् ऊह ( अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है ।
३. अनेक वाचनाएं (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां ) हैं ।
४, पुस्तकें अशुद्ध हैं ।
५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर हैं ।
६. अर्थ विषयक मतभेद भी हैं।
इन सारी कठिनाइयों के उपरान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गए । कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं । किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगमसम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया। उनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पा कर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम- साहित्य जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राण-संचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्य श्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी और मेरे सहयोगी साधुसाध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है । सम्पादन कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्गदर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है । आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए अपना पर्याप्त समय दिया है । उनके मार्गदर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पर हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं।
नौ आगम-ग्रन्थ
आवश्यक
प्रस्तुत सूत्र का पाठ आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि आवश्यक की हारिभद्रीयवृत्तितथा आवश्यक के आदर्शों के आधार पर निर्धारित किया है।
दशवेकालिक : उत्तराध्ययन
दशवेकालिक का जो पाठ हमने स्वीकार किया है, उसका मुख्य आधार 'ख' प्रति है । किन्तु पूर्णतः मुख्यता किसी की भी नहीं है । आदि से अन्त तक कोई भी प्रति शुद्ध नहीं मिलती । ५।१३११८ में 'कुमुदुप्पल नालिय' यह पाठ अगस्त्य चूर्णि में है । हमने वही स्वीकृत किया है । चूर्णि की भाषा में
और की बहुलता है । जैसे - इत्थितो ( इत्थिओ ) (२/२), सतणाणि ( सयणाणि) (२२), जति जई (२६), त का लोप प्रायः नहीं किया गया है। ये प्रयोग प्राचीन अवश्य हैं पर हम लोग प्राकृत
१. स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति, श्लोक १,२ : सत्सम्प्रदाय हीनत्वात् सदृहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामवृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याव् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २. हेमशब्दानुशासन, ८।१।१७७
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