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________________ ७६६ पुप्फियाओ थणपाएहि", अप्पेगइएहिं पीहगपाएहि', अप्पे गइएहिं परंगणएहिं', अप्पेगइएहि परक्कममाणेहि, अप्पेगइएहिं पक्खोलणएहिं, अप्पेगइएहिं थणं मग्गमाणेहि, अप्पेगइएहिं खीरं मग्गमाणेहिं, अप्पेगइएहिं तेल्लं मग्गमाणेहिं, अप्पेगइएहिं खेलणयं मग्गमाणेहि, अप्पेगइएहिं खज्जगं" मग्गमाणेहिं, अप्पेगइएहिं कूरं मग्गमाणेहि, अप्पेगइएहिं पाणियं मग्गमाणेहि, अप्पेगइएहिं हसमाणेहिं, अप्पेगइएहिं रूसमाणेहि, अप्पेगइएहिं अक्कोसमाणेहिं', अप्पेगइएहिं अक्कुस्समाणेहिं, अप्पेगइएहिं हणमाणेहि, अप्पेगइएहिं हम्ममाणेहि, अप्पेगइएहिं विप्पलायमाणेहिं, अप्पेगइएहिं अणुगम्ममाणेहि, अप्पेगइएहिं रोयमाणेहि, अप्पेगइएहि कंदमाणेहिं, अप्पेगइएहिं विलवमाणेहिं, अप्पेगइएहिं कूवमाणेहिं, अप्पेगइएहि उक्कवमाणेहि , अप्पेगइएहिं निद्दायमाणेहिं, अप्पेगइएहिं पलवमाणेहि, अप्पेगइएहिं हदमाणेहि, अप्पेगइएहि वममाणेहि, अप्पेगइएहि छेरमाणेहि, अप्पेगइएहि मुत्तमाणेहिं मुत्त-पुरीस-वमिय-सुलित्तोवलित्ता मइलवसणपोच्चडा असुइबीभच्छा परमदुग्गंधा नो संचाएहिइ" रटूकडेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरित्तए॥ १३१. तए णं तीसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेहिं बहूहिं दारगेहि य जाव" डिभियाहि य अप्पेगइएहिं १. अप्पेगइएहि य थणपाएहिं (क); अप्पेगइ- ६. अकोस (क,ग); आकोस० (ख)। एहि थणियपाएहि (ख,ग)। ७. उक्कूवमाणेहिं निज्जायमाणेहिं (ख)। २. पीयगयाएहिं (क)। ८. पवलमाणेहिं (क)। ३. परंगणेहिं (वृ)। ६. पुच्चडा (ख,ग)। ४. पचंकमणेहिं (क)। १०. °वीसका (क)। ५. खज्जगे (ख)। ११. संचाएति (क)। १२. अतः पूर्व 'बहुपुत्तिया' भाविजन्मवर्णने सर्वत्र भविष्यत् क्रियापदप्रयोगो दृश्यते, किन्तु अत्र अतः परं च सर्वत्रापि वर्तमानक्रियापदप्रयोगो लभ्यते । एतत् परिवर्तनं निश्चितं कयाचित विस्मत्या जातमस्ति । अर्थप्रसङ्गानुसारेण उत्तरवर्तीनि क्रियापदानि यन्त्रे द्रष्टव्यानिसू० १३१ समुप्पज्जित्था समुप्पज्जिहिइ ,१३२ उवागच्छंति विहरंति उवागच्छिहिंति विहरिस्संति ,, १३३ अणुपविढे अणपविस्सिहिइ , १३४ पास इ अब्भुठेइ अणु गच्छइ वंदइ पासिहिइ अब्भुठेहिइ अणुगच्छिहिइ बंदिस्सइ नमंसइ पडिलाभेइ वयासी नमंसिस्सइ पडिलाभेहिइ वइस्सइ , १३५ परिकहेंति परिकहेहिंति ,, १३६ वंदइ नमसइ वयासी पव्वयामि बंदिस्सइ नमसिस्सइ वइस्सइ पव्वइस्सामि ,, १३७ वंदइ नमसइ पडिविसज्जेइ वंदिस्सइ नमंसिस्सइ पडिविसज्जिहिइ , १३८ वयासी वइस्सइ ॥ १३६ वयासी वइस्सइ , १४० पडिसुणेइ पडिसुणिस्सइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003555
Book TitleUvangsuttani Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages1178
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size22 MB
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