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________________ १०५४ सअंतर-मुखेज्ज ११६,१३५,१४७,१५५,१५६,२२१ से २२४, २५६,२७७,५।१,२१,३२,४१,४३,५०,५८%; ६।१०,११,१४,१५,१८,१६,२१,२२,२६, ७।४,४६,६३,६६,८७,६०,११०,११४,१३२, १६७,१८३,१६४ सू १८१२१, २०१२,७ उ१२६.४४ से ४६,६३,१०५,१०६,११५, ११६,११६,१३८,१४८, ४।५;५।२८ सअंतर (सान्तर) ५६।१।१ सई (सकृत् ) सू १।१२,१४ साइंदिय (सेन्द्रिय) प ३।४० से ४३,४६१८।१३, १८,१६ सइय (शतिक) ज ४।१६२,१६८,२०४,२१०, २३६,२६६,२७५ सउण (शकुन) ज २।१२; ४।३,२५ सउणरुय (शकुनरुत) ज २१६४ सउणि (शकुनि) ज २११६७।१२३ से १२५, १३३।१ सउणिपलीणगसंठिय (शकूनिप्रलीन कसं स्थित) सू १०।२६ संकड (संकट) ज ३।२११ संकप्प (संकल्प) ज ३।२६,३६,४७,५६,१०५, १२२,१२३,१३३,१४५,१८८,४।१४०।१; ५।२२ उ १।१५,३५,४१ से ४४,५१,५४,६५, ७१,७६,७६,६६,१०५ ; ३।२६,४८,५०,५५, ६८,१०६,११८,१३१;५॥३६,३७ संकम (संक्रम) प १०।३० ज ३।६६ से १०१,१६१ सु १६।२२।१२ सिंकम (+-क्रम) संकमति सू २२२ संमण (संक्रयण) सू १६।२२।१२ संकममाण (संक्रामत्) ज ७।१०,१३,१६,१६,२२, २५,२७,३०,६६,७२,७५,७८,८१,८४ सू १११४,१६,१७,२१,२४,२७,२।२,३,६।१ संकला (शृंखला) ज ३।३ संकाश्य (दे०) ३।५१,५३,५५,५६,६३,६४,६७,६८, ७१,७३,७४,७६ संकाइयग (दे०) उ ३५१ संकास (संकाश) प ११४८।५६ ज २१७८; ३११ संकिलिट्ठ (संक्लिष्ट) १७.११४।१,१३८; २३।१६५ संकिलिस्समाण (संक्लिश्यमान) १ ११११३,१२८ संकिलेसबहुल (संक्लेशबहुल) ज १११८ संकुचियपसारिय (संकुचितप्रसारित) ज ५१५७ संकुड (दे० संकुच) सू १६।२२।१५ संकुडिय (दे० संकुचित) ज २११३३ संकुय (संकुच) ज ७।३१,३३ सु ४।३,४,६,७ संकुल (संकुल) ज २१६५,३।१७,२१,१७७; ५२५ संख (शंख) प ११४६; २।३१,१७।१२८ ज २।१५, २४,६४,६८,६६, ३।३,१२,७८,१६७।१,१०, १७८.१८०,२०६४।८५,१२५,२१२,२१२।१; ५।६२; ७।१७८ मू २०१८,२०१८।२ संखणग (शंखनक) प ११४६ संखणाभ (शङ्खनाभ) सू २०१८ संखदल (शङ्खदल) प २१६४ संखधमा (शंखध्मायक) उ ३.५० संखमाल (शङ्खमाल) ज २।८ संखवण्णाभ (शङ्खवर्णाभ) सु २०१८ संखसणाम (शंखसनामन्) ज ७।१८६।२ संखायण (शंखायन) ज ७४१३२।१ सू १०१६३ संखार (शंखकार) प ११६७ संखावत्त (शंखावर्त) प ६२६ संखिज्ज (संख्येय) ज ३।१६२५१५ संखित्त (संक्षिप्त) ज १८,३५,५१,४।४५,११०, ११४,१५६,२१३,२४२ संखित्तविउलतेयलेस्स (संक्षिप्त विपुलतेजोलेश्य) ज ११५ उ ११३ संखिय (शांखिक) ज २१६४; ३।३१,१८५ संखेज्ज (संख्येय) प १११३,२०,२३,२६,२६,४०, ४८,११४८।८,४०,५७,३।१८०,५२,३,५,१२६, १२७,१४२,१४३;६।३५ से ४१,६०,६१,६४, ६६,६८,१०।१६,१८ से २७,२६,१११५०, ७२,१२॥३२,३३,३६,१५।८३,८४,८७,८६, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003555
Book TitleUvangsuttani Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages1178
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size22 MB
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