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________________ विसुद्धतराग-वीइक्कत १०४६ विसुद्धतराग (विशुद्धतरक) प १७।१०८ से १११ विसुद्धलेस्सतराग (विशुद्धलेश्यातरक) प १७७ विसुद्ध वण्णतरग (विशुद्ध र्णत रक) प १७१६,१७ विसेस (विशेष) प २११४२०६४।१८,१२।३१; १५।२६,३०; १७।३०,१४६ ज १११३,३० ३३,३६,२०४५,१४५,३।३२,४१२,२५ सू २।२,४४,७; १५।५ से ७,१६८; २२।१३ विसेसाहिय (विशेषाधिक) प २१६४;३।१ से ६, २४ से ३२,३७ से १२०,१२२ से १२५,१२७, १४१ से १४३,१५६ से १७०,१७४ से १८३, ६।१२३;८।५,७,६,११६।१२,१६,२५,१०।३ से ५,२६ से २६;१११७६,६०१५।१३,१६, २६ से २८,३१,३३,१५१५८।१,१५।६४; १७।५६ से ६६,७१ से ७६,७८ से ८३,१४४ से १४६,२०६४, २११०४,१०५; २२।१०१२८१४१,४४,७०,३४।२५,३६।३५ से ४१,४८,४६,५१,८१ ज १७,२०,४।४५, ५७,६२,६८,११०,१४३,२१३,२३४,२४१; ७।१४,१६,७३ से ७५,६३,१६७,२०७ सु१।१४,२७,१८।३७;१६।१० विसोह (वि--शोधय) विसोहे हिट ३।११५ विस्स (विश्व) ज ७।१३०,१८६।४ विस्संभर (विश्वम्भर) ५१७६ विस्तदेण्या (विश्वदेवता) सू १०.३ विस्सुत (विश्रुत) ज ३।३५ विस्सुय (विश्रुत) ज३७७,१०६,१२६,१६७ विहंगु (दे०) प ११४८।४६ विहग (हिग) ज ११३७, २०६८,१०१,४।२७; ५२८ विहप्फइ (बृहस्पति) ज ७१०४ /विहर (वि+ हृ) विहरइ प १५० से ५३ ज ११५,४५,२१७० ६१,३।२,२०,२३,३३, ८२,८४,१५३,१७१,१८२,१८६,२१८,२१६, २२४;४।१५६५।१६ उ ११२,२७,३१६ ४।११:५९ विहरंति प २०२० से २७,३० से ३७,३६ से ४२,४६,४८ से ५२,५४,५५,५७ से ५६ ज १११३,३०,३३;२।८३,१२०,४।२, ११३; ५।१,३,८ से १३,६८,७५६,५६ सू १६।२४ उ ३।५०५२६ विहरति प २।३२,३३,३५,३६,४३ से ४५,४८,५१ ५३ से ५६ ज २१७२; ३।१२६; २८ से १३ सू २०१७ विहरसि उ ३८१ विहरामि उ ११७१,३१३६ विहराहि ज ३।१८५,२०६ विहरिस्संति ज १२१३४,१४६ विहरेज्जा सू २०१७ उ ५।३६ विहरमाण (विहरत्) ज २१७१ उ ११२,२० विहरित्तए (विहर्तुम् ) ज ७।१८४,१८५ सु १८।२२ उ ११६५,३१५० विहरिय (विहृत) उ ३१५५ विहव (विभव) ज ५१४३ विहाड (वि- घटय) विहाडेइ ज ३।६०,१५७ विहाडेहि ज ३८३,१५४ विहाडिय (विघटित) ज ३।६० विहाडेता (विघट्य) ज ३१८३ विहाण (विधान) प ११२०१२,११२०,२३,२६,२६, ४८,६८ विहाणमग्गण (विधानमार्गण) प २८६.६,५२,५५ विहायगति (विहायोगति) प १६।१७,३८,५५ विहायगतिणाम (विहायोगतिनामन्) प २३।३८, ५६,११६,११७,११६,१२८,१३२ विहार (विहार) ज २७१ विहि (विधि) प २।४५ ; २१११११ ज ३।२४।२, सू १६०२२ विहिण्णु (विधिज्ञ) ज ३।३२ विहूण (विहीन) प १०।१४।५ ज ४१६४,८६,१३६, २०८ बिहूसण (विभूषण) ज ४।१४०।१ वीइ (वीचि) ज ३।१५१ वीइक्कंत (व्यतिक्रान्त) ज २१५१,५४,७१,८८, ८६,१२१,१२६,१३०,१४६,१५४,१६०,१६३; ३१२२५ उ ११५३,७८,३।१२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003555
Book TitleUvangsuttani Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages1178
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size22 MB
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