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समर्पण
पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, प्राणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पप्रोगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ।
विलोडियं प्रागमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्ध णवणीयमच्छं। समाय-सज्माण-रयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुध्वं ॥
जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से।
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समस्ये मम माणसे वि। जो हेउभूनो स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुरुवं ।
जिसने श्रत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में । हेतुभूत थत सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से।
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