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________________ अंतोमुहुत्त-अकसाइ - ७७२. जी० १११२७; ३१७७,१११,११८,२१४, अंबरतल [अम्बरतल] ओ०५२. रा०६८८ २७७,२६८,३००,३०७,३०६,३३६,३५२, अंबसालवण [आम्रशालवन] रा०२,८ से १०, ३५६,३६०,३६४,३६८,३६६,३६६,४१५, १२,१३,१५,५६ ६४८,६७३,७५५,७५७,८३८॥१५,८३६,८४०, अंबिल [अम्ल जी० ११५:३।२२ ८४२,६०५ अंबिलोदय [अम्लोदक जी० २६५ अंतोमुहुत्त [अन्तर्मुहूर्त ] जी० ११५२,५६,६५,७४, अंबुभक्खि ]अम्बुभक्षिन् ] ओ० ६४ ७६,८२,८७,८८,१०१,१०३,१११,११६,१२१, अंसुय [अंशुक] जी० ३।५६५ १२३ से १२५,१२७,१२८,१३३,१३७ से अकंटय [अकण्टक ] ओ०६,१४. रा० ६७१. १४०,१४२; २।२० से २२,२४ से ३४,४६, जी० ३।२७५ ५०,५३ से ६१,६३,६५ से ६७,७६,८२ से अकंडुयय [अकण्ड्यक] ओ० ३६ ८४,८७,८८,६०,६१,१०७,१०६ से १११, अकंत [अकान्त ] रा० ७६७. जी० १६५,३९२ ११३,११४,११६,११६ से १३३, ३।१५६, अकंततरक [अकान्तत क] जी० ३८४ १६१,१६२,१६५,१८६ से १६१,२१४,११३२, अकक्कस [अकर्कश] ओ० ४० ११३४ से ११३७, ४१३ से ११,१६,१७; १५, अकडुय [अकटुक ओ० ४० ७,८,१० से १६,२१ से २४,२८ से ३० ; ६।३, अकण्ण [अकर्ण] जी० ३।२१६ ८ से ११;७।१३,१४ ; ६।२३ से २६,३१,३३, अकम्मभूमक [अकर्मभूमक] जी० २।१३३ ३४,३६,४१,४७,५२,५७ से ६०,६८ से ७३, अकम्मभूमग [अकर्मभूमक] जी० ११५१,५५, ७७,७८,८०,८३,८५,८६,६०,६२,६३,६६,६७, १०१,११६,१२६; २।३०,३२ से ३४,७७,८५, १०२,१०३,१०५,११४,११५,११७,११८, ६६,१०६,११६,१२४,१३७,१४७,१४६; १२३,१२५,१२६,१२८,१३२,१३६,१४४, ३।१५५,२१५,२२८,८३६ १४६,१५०,१५२,१५३,१६०,१६४,१६५, अकम्मभूमि [अकर्मभूमि] जी० २११३७ १७२,१७३,१७६ से १७८,१८६ से १६१, अकम्मभूमिक [अकर्मभूमिज, क] जी० २।५७,५८, १६३,१६४,१६८,२०२,२०४,२०७,२११, २१६ से २१८,२२२,२२३,२२५,२२८,२२६, अकम्मभूमिग [अकर्मभूमिज,°क] जी० २।५६ से २४१,२४२,२५७ से २६०,२६२,२६४,२७७, ६१,६६,७०,७२,१३८,१४७,१४६ २७८ अकम्मभूमिय [अकर्मभूमिज] जी० ११०१ अंतोमुहुत्तिय [अन्तर्मुहूर्तिक] ओ० १७३,१८२ अकम्मभूमिया [अकर्मभूमिजा] जी० २।११,१३, अंतोसल्लमयग [अन्तर्शल्यमृतक] ओ० ६० ७०,७२,१४७,१४६ अंदोलग [अन्दोलक] रा० १८०. जी० ३।२६२ अकयस्थ [अकृतार्थ] रा० ७७४ अंदोलय [अन्दोलक] रा० १८१ अकयलक्खण [अकृतलक्षण] रा० ७७४ अंधकार [अन्धकार] ओ० ४६ अकरंडुय [अक रण्डक] ओ० १६. जी० ३१५६६, अंधयार [अन्धकार ओ० ५,८,५७. जी० ३।२७४ अंधिया [अन्धिका ] जी० शह अकरण अकरण] ओ० ७८ से ८१ अंब [आम्र] जी० ११७१ अकरणिज्ज | अकरणीय ] ओ० ११७. रा० ७६६ अंबड [अम्बड] ओ० ६६ अकसाइ [अकषायिन्] जी० १११३१६२८, अंबपल्लवपविभत्ति [आम्रपल्लवप्रविभक्ति] रा० १०० १४८,१५१,१५४.१५५ ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003554
Book TitleUvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1987
Total Pages854
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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