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________________ प्रति' प्राचीन है व बहुत जीर्ण है, अन्त में लिपि संवत् नहीं है परन्तु अनुमानतः १६ वीं शताब्दी की होनी चाहिए। (ग) (मूलपाठ) पत्र ६० सचित्र यह प्रति श्रीचन्द गणेशदास गधैया पुस्तकालय की है। इसके पत्र ६० व पृष्ठ १८० हैं। प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियां है और प्रत्येक पंक्ति में ६३ करीब अक्षर लिखे हुए हैं। इसकी लम्बाई ११॥ इंच व चौड़ाई ४॥ इंच है। प्रति के आदि पत्र में तीर्थंकर देव की प्रतिमा का सुनहरी स्याही में सुन्दर चित्र है । प्रति बहुत सुंदर लिखी हुई है। 'प्रति' के मध्य 'बावडी' व उसके मध्य लाल बिन्दु हैं। इस प्रति के अन्त में पुष्पिका व लिपि संवत् नहीं है परन्तु अनुमानतः १६ वीं शताब्दी की होनी चाहिए यह प्रति 'ताडपत्रीय प्रति' व टीका से प्रायः मेल खाती है। 'ता' ताडपत्रीय फोटो प्रिन्ट (जैसलमेर भण्डार) यह प्रति टीका से प्रायः मिलती है। इसमें तीसरी प्रतिपत्ति' के १०५ सूत्र से ११५ सुत्र तक के पत्र नहीं हैं। (ट) (टब्बा) लिपि संवत् १८०० यह प्रति संघीय ग्रन्थालय लाडनूं की है। यह प्रति कालूगणी द्वारा पठित (पारायणकृत) है व उनके द्वारा स्थान-स्थान पर पाठ संशोधन भी किया हुआ है । जीवाजीवाभिगम टीका (हस्तलिखित) यह प्रति श्रीचन्दजी गणेशदासजी गधैया पुस्तकालय सरदारशहर की है। इसके पत्र २५० व पृष्ठ ५०० हैं। प्रत्येक पत्र में पंक्ति १५ अक्षर ६५ करीब है। लम्बाई १०x४३ लिपि सं० १७१७, प्रति की लिपि सुन्दर है। सहयोगानुभूति जैन-परंपरा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीम है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चकी हैं। देवद्विगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गये थे, वे इस लंबी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गये हैं। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। आचार्यश्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, गवेषणापूर्ण, तटस्थदृष्टिसमन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ।। हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्यश्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन हैं। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन-कार्य के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन, तुलनात्मक अध्ययन आदि-आदि । इन सभी प्रवृत्तियों में आचार्यश्री का हमें सक्रिय योग मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति बीज है। मैं आचार्यश्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर भार-मुक्त होऊ, उसकी अपेक्षा अच्छा है कि अग्रिम कार्य के लिए उनके आशीर्वाद का शक्ति-संबल पा और अधिक भारी बनं । प्रस्तुत ग्रन्थ के ओवाइयं तथा रायपसेणियं के पाठ सम्पादन में मुनि सुदर्शनजी, मुनि मधुकरजी और मुनि हीरालालजी तथा जीवाजीवाभिगमे के पाठ सम्पादन में मुनि सुदर्शनजी और मुनि हीरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003554
Book TitleUvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1987
Total Pages854
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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