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अभिगेहिं 'मिसिमिसंत' 'सुसिलिट्ठ 'वीइयंगे कूवग्गाहा 'तुरगाणं सखिखिणी 'मुइंग भट्टित्तं
अब्भंगेहिं 'मिसमिसंत सुसलिट्ठ वीजियंगे कूतुयग्गाहा 'तुरंगाणं सकिंकिणी
(ग) (क, ग) __ (क)
(क)
'मुदंग
भट्टत्तं
'कोंच
वइर' 'णिघस वेयणिज्ज से जे से जाओ 'उरियाओ कुक्कुइया "अहव्वण अलाउ चरिमेहि वेंटिया
__(ख)
'कुंच'
(ग, वृ) वज्ज 'निकस' वेदणिज्जं (क, ग) सेज्जे (क, ख) सेज्जाओ पुरियाओ (क, ग) कोकुइया (ख, ग) 'अथव्वण' (क, ख, ग) लाउ
(ग) चरमेहि वंटिया
(क, ख, ग) अणकारा (क, ग) तिल्ल (क); तेल' (ख) वइ (क, ख, ग) पत्तिट्ठिया (क, ख)
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भूइ
भूई
अणगारा तेल्ला वय गा. १ पइट्रिया
१७५ " १६५
प्रति-परिचय,
) यह प्रति श्रीचन्द गणेशदास गधैया पुस्तकालय', सरदारशहर से श्री मदनचन्द जी गोठी द्वारा प्राप्त है। इसके पत्र ४० तथा पृष्ठ ८० है। प्रत्येक पत्र ११॥ इंच लम्बा तथा ४॥ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पत्र में ४ से १३ तक पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में ४० से ४६ तक अक्षर हैं। पत्र के चारों ओर सूक्ष्माक्षरों में टीका लिखी हुई है। प्रति सुन्दर, कलात्मक तथा पठित मालूम होती है । प्रति के अंत में लेखक की निम्नोक्त प्रशस्ति है :
इति श्री उववाईसूत्रं समाप्तं ॥ ग्रन्थ ११६७ ॥छ। संवत् १६२३ वर्षे फाल्गुन सुदि ३ दिने। आगरा नगरे। पातिसाह श्री अकबर जलालदीन राज्य प्रवर्त्तमाने ॥ श्री बृहत् खरतर गच्छालंकार श्री पूज्यराज श्री ६ जिनरि. घसूरिविजयराज्ये पंडित श्रीलब्धिवर्द्धन
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