________________
२६
उद्देशक
अक्षर-परिमाण ४५१०३ ४४५५
अक्षर-परिमाण शतक उद्देशक २४६३५ ४८५३४ ४५८५६ २७
६६०७ ३२३३८ ३२८०८ २१६१४ १६०३३ ३२ ३६८१२ ३३ (१२) १२४ १५६३६ ३४ (१२) १२४
८४१२ ३५ (१२) १३२ २२४४३ ३६ (१२) १३२ ८०२७
३७ (१२) १३२ १६८७१ ३८ (१२) १३२ १६३० __३६ (१२) १३२ १०६८ ४० (२१) २३१
६६४ १०२७ ४७६४ २३४४
Xur 9 4 Mror mr mmmm
mm
३०८६ ८६६४ ४१८१ ७३१
८७
२१ (आठ वर्ग)८० २२ (छह वर्ग) ६० २३ (पांच वर्ग) ५०
२४
१३६ २७३४
३५१६ कुल ६१८२२४
१६६
३६६२६ कुल १३८ कुल १६२३'
भाषा और रचना-शैली
प्रस्तुत आगम की भाषा प्राकृत है। कहीं-कहीं शौरसेनी के प्रयोग भी मिलते हैं। इसमें देशी शब्दों का प्रयोग भी स्थान-स्थान पर मिलता है, जैसे-खत्त, डोंगर (७।११७), टोल (७.११६), मग्गओ (७।१५२), बोंदि (३।११२), चिक्खल्ल (८।३५७) ।
इसकी भाषा बहुत सरल और सरस है । अनेक प्रकरण कथा-शैली में लिखे गए हैं । जीवनप्रसंग. घटनाएं और रूपक स्थान-स्थान पर उपलब्ध होते हैं। स्थान-स्थान पर कठिन विषयों को उदाहरणों द्वारा समझाया गया है।
प्रस्तुत आगम की रचना गद्य शैली में हुई है। कहीं-कहीं स्वतन्त्र रूप से प्रश्नोत्तरों का क्रम चलता है और कहीं-कहीं किसी घटनाक्रम के बाद उनका क्रम चलता है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने के लिए संग्रहणी गाथाओं के रूप में कुछ पद्य भाग भी मिलता है ।
१. बीसवें शतक के छठे उद्देशक में पृथ्वी, अप और वायु-इन तीनों की उत्पत्ति का निरूपण है। एक परम्परा के अनुसार यह एक उद्देशक है, दूसरी परम्परा के मत में ये तीन उद्देशक हैं। इस परम्परा के अनुसार प्रस्तुत आगम के कुल उद्देशक १९२५ हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org