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________________ २४ उक्त सूचनाओं से प्रस्तुत आगम का महत्व जाना जा सकता है। वर्तमान विज्ञान की अनेक शाखाओं ने अनेक नए रहस्यों का उद्घाटन किया है । हम प्रस्तुत आगम की गहराइयों में जाते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इन रहस्यों का उद्घाटन ढाई हजार वर्ष पूर्व ही हो चुका था। भगवान महावीर ने जीवों के छह निकाय बतलाए। उनमें त्रस निकाय के जीव प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। वनस्पति निकाय के जीव अब विज्ञान द्वारा भी सम्मत हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-इन चार निकायों के जीव विज्ञान द्वारा स्वीकृत नहीं हुए। भगवान् महावीर ने पृथ्वी आदि जीवों का केवल अस्तित्व ही नहीं बतलाया, उनका जीवनमान, आहार, श्वास, चैतन्य-विकास संज्ञाएं आदि पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। पृथ्वीकायिक जीवों का न्यूनतम जीवनकाल अन्तर-, मुहर्त का और उत्कृष्ट जीवनकाल बाईस हजार वर्ष का होता है। वे श्वास निश्चित कम से नहीं लेते-कभी कम समय से और कभी अधिक समय से लेते हैं। उनमें आहार की इच्छा होती है। वे प्रतिक्षण आहार लेते हैं। उनमें स्पर्शनेन्द्रिय का चैतन्य स्पष्ट होता है। चैतन्य की अन्य धारायें अस्पष्ट होती हैं। मनुष्य जैसे श्वासकाल में प्राणवायु का ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय के जीव श्वासकाल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते किन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति--इन सभी के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। पथ्वी की भांति पानी आदि के जीव भी श्वास लेते हैं, आहार आदि करते हैं। वर्तमान विज्ञान ने वनस्पति जीवों के विविध पक्षों का अध्ययन कर उनके रहस्यों को अनावृत किया है, किन्तु पथ्वी आदि के जीवों पर पर्याप्त शोध नहीं की। वनस्पति क्रोध और प्रेम प्रदर्शित करती है। प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह प्रफुल्लित होती है और घृणापूर्ण व्यवहार से वह मुरझा जाती है। विज्ञान के ये परीक्षण हमें महावीर के इस सिद्धान्त की ओर ले जाते हैं कि वनस्पति में दस संज्ञाएं होती हैं। वे संज्ञाए निम्न प्रकार हैं-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संज्ञा, ओघ संज्ञा और लोक संज्ञा। इन संज्ञाओं का अस्तित्व होने पर वनस्पति अस्पष्ट रूप में वही व्यवहार करती है जो स्पष्ट रूप में मनुष्य करता है। प्रस्तुत विषय की चर्चा एक उदाहरण के रूप में की गई है। इसका प्रयोजन इस तथ्य की ओर इंगित करना है कि इस आगम में ऐसे सैंकड़ों विषय प्रतिपादित हैं जो सामान्य बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं हैं। उनमें से कुछ विषय विज्ञान की नई शोधों द्वारा अब ग्राह्य हो चुके हैं और अनेक विषयों को परीक्षण के लिए पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। सूक्ष्म जीवों की गतिविधियों के प्रत्यक्षतः प्रमाणित होने पर केवल जीव-शास्त्रीय सिद्धान्तों का ही विकास नहीं होता, किन्तु अहिंसा के सिद्धान्त को समझने का अवसर मिलता है और साथ-साथ सूक्ष्म जीवों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार की समीक्षा का भी। १. भगवई १।१।३२, पृ०६। २. भगवई ॥३४२५३,२५४, ३०४६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003552
Book TitleAngsuttani Part 02 - Bhagavai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages1158
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size19 MB
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