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________________ २७ किया गया है। तीसरे बलदेव - वासुदेव के पिता का नाम रुद्द है, किन्तु समवायांग की हस्तलिखित वृत्ति में 'रुद्द ' के स्थान में 'सोम' है । वस्तुतः 'सोम' के बाद रुद्द ' होना चाहिए' । समवाय ३० (सूत्र १, गाथा २६ ) में सभी सभी आदर्शों में 'सज्झायवायं' पाठ मिलता है । वृत्तिकार ने भी उसकी स्वाध्यायवाद - इस रूप में व्याख्या की है । अर्थ की दृष्टि से यह संगत नहीं है । दशाश्रु तस्कन्ध ( सूत्र २६ ) में उक्त गाथा उपलब्ध है । उसमें 'सज्झायवाय' के स्थान पर 'सम्भाववाय' पाठ है । दशाश्र तस्कन्ध के वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'सद्भाववाद' किया है । अर्थ-मीमांसा करने पर यह पाठ संगत प्रतीत होता है । ' प्राचीन लिपि में संयुक्त 'झकार' और संयुक्त 'भकार' एक जैसे लिखे जाते थे । प्रकार के लिपिक पाठ-परिवर्तन अनेक स्थानों में प्राप्त होते हैं । प्रति परिचय (क) समवायांग मूलपाठ यह प्रति जैसलमेर भंडार की ताडपत्रीय ( फोटोप्रिंट) मदनचन्दजी गोठी, सरदारशहर द्वारा प्राप्त है । इसके पत्र ६४ तथा पृष्ठ १२८ हैं किन्तु २४ वां पत्र नहीं है । प्रत्येक पृष्ठ में ४ या ५ पंक्तियां हैं तथा प्रत्येक पंक्ति में ११० अक्षर हैं। लिपि सं० १४०१ । (ख) समवायांग मूलपाठ (पंचपाठी) यह प्रतिधैया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त है । बीच में मूलपाठ एवं चारों ओर वृत्ति लिखी हुई है । इसके पत्र १०६ तथा पृष्ठ २१२ हैं । प्रत्येक पृष्ठ में 8 पंक्तियां तथा प्रत्येक पक्ति में ३०, ३२ अक्षर हैं । यह प्रति १० इंच लम्बी तथा ४३ इंच चौड़ी है । इसके अन्त में संवत् दिया हुआ नहीं है । किन्तु पत्रों की जीर्णता व लिपि के आधार पर यह पन्द्रहवीं -सोलहवीं शताब्दी के लगभग की है। प्रति के अन्त में निम्न प्रशस्ति है— ||छ । समवाउ चउत्थमंगं || छ । अंकतोपि ग्रंथाग्र १६६७ ||छ || (ग) समवायांग मूलपाठ (पंचपाठी) यह प्रति गधेया पुस्तकालय, सरदारशहर से प्राप्त है। बीच में मूलपाठ एवं चारों तरफ वृत्ति लिखी हुई है । इसके पत्र ८१ तथा पृष्ठ १६२ हैं । प्रत्येक पृष्ठ में ५ से १२ पंक्तियां हैं । प्रत्येक पंक्ति में ३२ से ४७ तक अक्षर हैं । यह प्रति १० इंच लम्बी तथा ४१ इंच चौड़ी है । लिपि संवत् १३४५ लिखा है; पर संवत् की लिखावट से कुछ संदिग्ध सा लगता है। फिर भी प्राचीन है । अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है १. देखें, समवाश्रो, पइण्णगसमवाश्रो सू० २३० का पाद-टिप्पण । २. देखें, समवाप्रो, समवाय ३०, सू० १, गाथा २६ का दूसरा पाद-टिप्पण | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003551
Book TitleAngsuttani Part 01 - Ayaro Suyagao Thanam Samavao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages1108
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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