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________________ ज्ञान के पांच प्रकार [25 (2) प्राज्ञाप्त अर्थात् जिस अर्थ को गणधरों ने प्राज्ञों--सर्वज्ञ तीर्थंकरों-से प्राप्त-प्राप्तउपलब्ध किया। (3) प्राज्ञात्तं—प्राज्ञों-गणधरों द्वारा तीर्थंकरों से ग्रहण किया अर्थ 'प्राज्ञात्तं' कहलाता है। * (4) प्रज्ञाप्तं--प्रज्ञा अर्थात् अपने प्रखर बुद्धिबल से प्राप्त किया अर्थ 'प्रज्ञाप्तं' कहलाता है। 'पण्णत्तं' कहकर सूत्रकार ने बताया है कि यह कथन मैं अपनी बुद्धि या कल्पना से नहीं कर रहा हूँ / तीर्थंकर भगवान् ने जो प्रतिपादन किया, उसी अर्थ को मैं कहता हूँ। ज्ञान के पाँच भेदों का स्वरूप-(१) आभिनिबोधिक ज्ञान-प्रात्मा द्वारा प्रत्यक्ष अर्थात् सामने आये हुए पदार्थों को जान लेने वाले ज्ञान को प्राभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं / अर्थात् जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा उत्पन्न हो, उसे अभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान कहते हैं। (2) श्रुतज्ञान:-किसी भी शब्द का श्रवण करने पर वाच्य-वाचकभाव संबंध के आधार से अर्थ की जो उपलब्धि होती है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं / यह ज्ञान भी मन और इन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है किन्तु फिर भी इसके उत्पन्न होने में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की मुख्यता होती है, अत: इसे मन का विषय माना गया है / (3) अवधिज्ञान:- यह ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न रखता हुआ केवल आत्मा के द्वारा ही रूपी-मूर्त पदार्थों का साक्षात् कर लेता है / यह मात्र रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष करने की क्षमता रखता है, अरूपी को नहीं / यही इसकी अवधि-मर्यादा है। अथवा 'अव' का अर्थ है-नीचे-नीचे, 'धि' का अर्थ जानना है / जो ज्ञान अन्य दिशाओं को अपेक्षा अधोदिशा में अधिक जानता है, वह अवधिज्ञान कहलाता है। दूसरे शब्दों में, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर यह ज्ञान मूर्त द्रव्यों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है। (4) मन:पर्यवज्ञान-समनस्क, अर्थात् संज्ञी जीवों के मन के पर्यायों को जिस ज्ञान से जाना जाता है उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। प्रश्न उठता है-“मन की पर्यायें किसे कहा जाय?" उत्तर है---जब भाव-मन किसी भी वस्तु का चिन्तन करता है तब उस चिन्तनीय वस्तु के अनुसार चिन्तन कार्य में रत द्रव्य-मन भी भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियाँ धारण करता है और वे प्राकृतियाँ ही यहाँ मन को पर्याय कहलाती हैं। ___मनःपर्यवज्ञान मन और उसकी पर्यायों का ज्ञान तो साक्षात् कर लेता है किन्तु चिन्तनीय पदार्थ को वह अनुमान के द्वारा ही जानता है, प्रत्यक्ष नहीं / (5) केवलज्ञान - 'केवल' शब्द के एक, असहाय, विशुद्ध, प्रतिपूर्ण, अनन्त और निरावरण, अर्थ होते हैं / इनकी व्याख्या निम्न प्रकार से की जाती है- एक-जिस ज्ञान के उत्पन्न होने पर क्षयोपशम-जन्य ज्ञान उसी एक में विलीन हो जाएँ और केवल एक ही शेष बचे, उसे केवलज्ञान कहते हैं। असहाय—जो ज्ञान मन, इन्द्रिय, देह, अथवा किसी भी अन्य वैज्ञानिक यन्त्र की सहायता के बिना रूपी-ग्ररूपी, मूर्त-अमूर्त त्रैकालिक सभी ज्ञेयों को हस्तामलक की तरह प्रत्यक्ष करने की क्षमता रखता है उसे केवलज्ञान कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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