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________________ श्रु तज्ञान] [205 में था, वर्तमान काल में है और भविष्य में रहेगा। यह मेरु अादिवत् ध्रव है, जीवादिवत् नियत है तथा पञ्चास्तिकायमयः लोकवत् नियत है, गंगा सिन्धु के प्रवाहवत् शाश्वत और अक्षय है, मानुषोत्तर पर्वत के बाहरी समुद्रवत् अव्यय है। जम्बूद्वीपवत् सदैव काल अपने प्रमाण में अवस्थित है, आकाशवत् नित्य है। कभी नहीं थे, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और कभी नहीं होंगे, ऐसा भी नहीं है। जैसे पञ्चास्तिकाय न कदाचित् नहीं थे, न कदाचित् नहीं हैं, न कदाचित् नहीं होंगे, ऐसा नहीं है अर्थात् भूतकाल में थे, वर्तमान में हैं, भविष्यत् में रहेंगे। वे ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, नित्य हैं। इसी प्रकार यह द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक-कभी न था, वर्तमान में नहीं है, भविष्य में नहीं होगा, ऐसा नहीं है / भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। यह ध्र व है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। वह संक्षेप में चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे—द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य से श्र तज्ञानी--उपयोग लगाकर सब द्रव्यों को जानता और देखता है / क्षेत्र से श्रु तज्ञानी-उपयोग युक्त होकर सब क्षेत्र को जानता और देखता है / काल से श्रु तज्ञानी--उपयोग सहित सर्व काल को जानता व देखता है / भाव से श्रु तज्ञानी-उपयुक्त हो तो सब भावों को जानता और देखता है / विवेचन-इस सूत्र में सूत्रकार ने गणिपिटक को नित्य सिद्ध किया है। जिस प्रकार पंचास्तिकाय का अस्तित्व त्रिकाल में रहता है, उसी प्रकार द्वादशाङ्ग गणिपिटक का अस्तित्व भी सदा स्थायी रहता है / इसके लिए सूत्रकर्ता ने ध्रब, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य, इन पदों का प्रयोग किया है / पञ्चास्तिकाय और द्वादशाङ्ग गणिपिटक की तुलना इन्हीं सात पदों के द्वारा की गई है, जैसे–पञ्चास्तिकाय द्रव्याथिक नय से नित्य है / वैसे ही गणिपिटक भी नित्य है। विशेष रूप से इसे निम्न प्रकार से जानना चाहिए / (1) ध्र व-जैसे मेरुपर्वत सदाकाल ध्र व और अचल है, वैसे ही गणिपिटक भी ध्रुव है / (2) नियत-सदा सर्वदा जीवादि नवतत्व का प्रतिपादक होने से नियत है / (3) शाश्वत-पञ्चास्तिकाय का वर्णन सदाकाल से इसमें चला आ रहा है, अत: गणिपिटक शाश्वत है। (4) अक्षय-जिस प्रकार गंगा आदि महानदियों के निरन्तर प्रवाहित रहने पर भी उनके मूल स्रोत अक्षय हैं उसी प्रकार द्वादशाङ्गश्रु त की शिष्यों को अथवा जिज्ञासुओं को सदा वाचना देते रहने पर भी कभी इसका क्षय नहीं होता, अतः अक्षय है। (5) अव्यय-मानुषोत्तर पर्वत के बाहर जितने भी समुद्र हैं, वे सब अव्यय हैं अर्थात् उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती, इसी प्रकार गणिपिटक भी अव्यय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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