________________ 202] [नन्दीसूत्र है। इस प्रकार के विभाग पूर्ववर्ती अंगों में नहीं हैं। इन्हें इस प्रकार समझना चाहिए कि- पूर्वो में जो बड़े-बड़े अधिकार हैं, उन्हें वस्तु कहते हैं, उनसे छोटे अधिकारों को प्राभूतप्राभत तथा उनसे छोटे अधिकार को प्राभृतिका कहते हैं / यह अंग सबसे अधिक विशाल है फिर भी इसके अक्षरों की संख्या संख्यात ही है। इसमें अनन्त गम, अनन्त पर्याय, असंख्यात त्रस और अनन्त स्थावरों का वर्णन है। द्रव्याथिक नय से नित्य और पर्यायाथिक नय से अनित्य है। इसमें संख्यात संग्रहणी गाथाएं हैं। पूर्व में जो विषय निरूपण किये गए हैं, उनको कुछ गाथाओं में संकलित करने वाली गाथाएं संग्रहणी गाथाएं कहलाती हैं / द्वादशाङ्ग का संक्षिप्त सारांश १११-इच्चेइयम्मि दुवालसंगे गणिपिडो अणंता भावा, अणंता अभावा, अणंता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता प्रकारणा, प्रणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, प्रणता अभवसिद्धिया, अणंता सिद्धा, अणंता प्रसिद्धा पणत्ता। भावमभावा हेऊमहेऊ कारणमकारणे चेव / जीवाजीवा भविप्र-मभविना सिद्धा प्रसिद्धा य // १११–इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक में अनन्त जीवादि भाव, अनन्त अभाव, अनन्त हेतु, अनन्त अहेतु, अनन्त कारण, अनन्त अकारण, अनन्त जीव, अनन्त अजोव, अनन्त भवसिद्धिक, अनन्त अभवसिद्धिक, अनन्त सिद्ध और अनन्त प्रसिद्ध कथन किए गए हैं। भाव और अभाव, हेतु और अहेतु, कारण-अकारण, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य, सिद्ध-प्रसिद्ध, इस प्रकार संग्रहणी गाथा में उक्त विषयों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बारह अंगरूप गणिपिटक में अनन्त सद्भावों का तथा इसके प्रतिपक्षी अनन्त अभावरूप पदार्थों का वर्णन किया गया है। सभी पदार्थ अपने स्वरूप से सद्रूप होते हैं और पर-रूप की अपेक्षा से असद्रूप / जैसे-जोव में अजीवत्व का अभाव और अजीव में जीवत्व का अभाव है। हेतु-अहेतु-हेतु अनन्त हैं और अनन्त ही अहेतु भी हैं / इच्छित अर्थ की जिज्ञासा में जो साधन हों वे हेतु कहलाते हैं तथा अन्य सभी अहेतु / __ कारण-अकारण-घट और पट स्वगुण की अपेक्षा से कारण हैं तथा परगुण की अपेक्षा से अकारण / जैसे-घट का उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड होता है और निमित्त होते हैं, दण्ड, चक्र, चीवर एवं कुम्हार आदि / इसी प्रकार पट का उपादान कारण तन्तु, और निमित्त कारण होते हैंजुलाहा तथा खड्डी मादि बुनाई के सभी साधन / इस प्रकार घट निज गुणों की अपेक्षा से कारण तथा पट के गुणों की अपेक्षा से अकारण और पट अपने निज-गुणों की अपेक्षा से कारण तथा घट के गुणों की अपेक्षा से अकारण होता है। जीव अनन्त हैं और अजीव भी अनन्त हैं। भव्य अनन्त हैं और अभव्य भी अनन्त हो हैं / पारिणामिक-स्वाभाविकभाव हैं। किसी कर्म के उदय प्रादि की अपेक्षा न रखने के कारण इनमें परिवर्तन नहीं होता। अनन्त संसारी जीव और अनन्त सिद्ध हैं / सारांश कि द्वादशाङ्ग गणिपिटक में पूर्वोक्त सभी का वर्णन किया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org