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________________ 194] [नन्दीसूत्र विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में अवगाढश्रोणिका परिकर्म का वर्णन है। अाकाश का कार्य है सब द्रव्यों को अवगाह देना / धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, काल तथा पुद्गलास्तिकाय, ये पाँचों द्रव्य आधेय हैं, आकाश इनको अपने में स्थान देता है। जो द्रव्य जिस अाकाश प्रदेश या देश में अवगाढ हैं, उनका विस्तृत विवरण वर्णन-अवगाढश्रोणिका में होगा, ऐसी संभावना की जा सकती है। (5) उपसम्पादन-श्रेणिका परिकर्म १०२-से कि तं उवसंपज्जणसेणिया परिकम्मे ? उवसंपज्जणसेणिमापरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते तं जहा, (1) पाढोग्रागा (मा) सपयाई (2) के उभूयं, (3) रासिबद्ध (4) एगगुण (5) दुगुणं, (6) तिगुणं, (7) के उभूयं, (8) पडिग्रहो (6) संसार पडिग्गहो, (10) नंदावत्तं, (11) उवसंप. ज्जणायत्तं, से तं उपसंपज्जणावत्तं, से तं उपसंपज्जणसेणिमा-परिकम्भे / १०२–वह उपसम्पादनश्रेणिका परिकर्म कितने प्रकार का है ? उपसम्पादन श्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है / यथा (1) पृथगाकाशपद, (2) केतुभूत, (3) राशिबद्ध, (4) एकगुण (5) द्विगुण (6) त्रिगुण (7) केतुभूत, (8) प्रतिग्रह, (9) संसार प्रतिग्रह, (10) नन्दावर्त, (11) उपसम्पादनावर्त / यह उपसम्पादनश्रेणिका परिकर्म श्रु त है। विवेचन--इस सूत्र में उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म का वर्णन है। उवसंपज्जण का अर्थ अङ्गीकार करना अथवा ग्रहण करना है / सभी साधकों की जीवन-भूमिका एक सरीखी नहीं होती। अतः दृष्टिबाद के वेत्ता, साधक की शक्ति के अनुसार जीवनोपयोगी साधन बताते हैं, जिससे उसका / सके। साधक के लिए जो जो उपादेय है, उसका विधान करते हैं और साधक उन्हें इस प्रकार ग्रहण करते हैं-'असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जानि / ' यहाँ 'उवसंपज्जामि' का अर्थ होता है--ग्रहण करता हूँ। संभव है, परिकर्म में जितने भी कल्याण के छोटे से छोटे या बड़े से बड़े साधन हैं उनका उल्लेख किया गया हो।। .(6) विप्रजहत् श्रेणिका परिकर्म १०३–से कि तं विप्पजहणसेणिग्रापरिकम्मे ? विप्पजहणसेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा (1) पाढोनागा(मा)सपयाई, (2) के उभूना, (3) रासिबद्ध, (4) एगगुणं, (5) दुगुणं, (6) तिगुणं, (7) के उभूप्र, (8) पडिग्गहो, (9) संसारपडिग्गहो, (10) नन्दावत्तं (11) विष्पजहणसेणिमापरिकम्मे / / १०३–विप्रजहत्श्रेणिका परिकर्म कितने प्रकार का है ? विप्रजहत्श्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है। यथा-(१) पृथकाकाशपद, (2) केतुभूत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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