________________ 192] [नन्दीसूत्र विषय सुगमतापूर्वक समझे जा सकते हैं / वह परिकर्म मूल और उत्तर भेदों सहित व्यवच्छिन्न हो चुका है। (1) सिद्धश्रोणिका परिकर्म १८-से कि तं सिद्धसेणिमा-परिकम्मे ? सिद्धसेणिग्रा-परिकम्मे चउद्दसविहे पन्नत्ते तं जहा—(१) माउगापयाई (2) एगट्टिनपयाई (3) अटुपयाई (4) पाढोागासपयाई (5) केउभूअं (6) रासिबद्ध (7) एगगुणं (8) दुगुणं (6) तिगुणं (10) के उभूअं (11) पडिग्गहो (12) संसारपडिग्गहो (13) नंदावत्तं (14) सिद्धावत्तं।। से तं सिद्धसेणिया-परिकम्मे / ९८-प्रश्न-सिद्धश्रेणिका परिकर्म कितने प्रकार का है ? उत्तर-वह चौदह प्रकार का है। यथा-(१) मातृकापद (2) एकार्थकपद (3) अर्थपद (4) पृथगाकाशपद (5) केतुभूत (6) राशिबद्ध (7) एकगुण (8) द्विगुण (9) त्रिगुण (10) केतुभूत (11) प्रतिग्रह (12) संसारप्रतिग्रह (13) नन्दावर्त (14) सिद्धावर्त / इस प्रकार सिद्धश्रेणिका परिकर्म है। विवेचन-सूत्र में सिद्धश्रेणिका पारकर्म के चौदह भेदों के केवल नामोल्लेख किए गए हैं, विस्तृत विवरण नहीं है / दृष्टिवाद के सर्वथा व्यवछिन्न हो जाने के कारण इसके विषय में अधिक नहीं बताया जा सकता, सिर्फ अनुमान किया जाता है कि 'सिद्धश्रेणिका' पद के नामानुसार इसमें विद्यासिद्ध आदि का वर्णन होगा। चौथा पद पाढो आगासपयाई', किसी-किसी प्रति में पाया जाता है / मातृकापद, एकार्थपद, तथा अर्थपद, के लिए सम्भावना की जाती है कि ये तीनों मंत्र विद्या से संबंध रखते होंगे; कोश से भी इनका संबंध प्रतीत होता है / इसी प्रकार राशिबद्ध, एकगुण, द्विगुण और त्रिगुण, ये पद गणित विद्या से संबंधित होंगे, ऐसा अनुमान है / तत्व केवलीगम्य ही है ! (2) मनुष्यश्रेणिका परिकर्म ६६-से कि तं मणुस्ससेणिया परिकम्मे ? मणुस्ससेणिप्रापरिकम्मे चउद्दसविहे पण्णते तं जहा-(१) माउयापयाई (2) एगद्विप्रपयाई (3) अटुपयाइं (4) पाढोनागा (मा) सपयाई (5) केउभूअं (6) रासिबद्ध (7) एगगुणं (8) दुगुणं (9) तिगुणं (10) केउभूअं (11) पडिग्गहो (12) संसारपडिग्गहो (13) नंदावत्तं (14) मण्णुस्सावत्तं, से तं मणुस्ससेणिया-परिफम्मे / _ER --मनुष्यश्रेणिका परिकर्म कितने प्रकार का है ? मनुष्यश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का प्रतिपादित है, जैसे (1) मातृकापद, (2) एकार्थक पद, (3) अर्थपद, (4) पृथगाकाशपद, (5) केतुभूत, (6) राशिबद्ध, (7) एक गुण, (8) द्विगुण, (6) त्रिगुण, (10) केतुभूत (11) प्रतिग्रह, (12) संसारप्रतिग्रह (13) नन्दावर्त और (14) मनुष्यावर्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org