________________ श्रुतज्ञान ] [189 (11) श्री विपाकश्रुत ६३-से कि तं विवागसुअं? विवागसुए णं सुकड-दुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे प्राविज्जइ। तत्थ णं दस दुहविवागा, दस सुहविवागा। से किं तं दुहविवागा ? दुहविवागेसु णं दुह-विवागाणं नगराई, उज्जाणाई, वणसंडाई, चेइपाइं, रायाणो, अम्मा-पियरो, धम्मायरिया, धम्मकहानो, इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा, निरयगमणाई, संसारभव-पवंचा, दुहपरंपरायो, दुकुलपच्चायाईओ, दुल्लहबोहियत्तं प्रायविज्जइ, से तं दुहविवागा। ६३-प्रश्न--भगवन् ! विपाकश्रु त किस प्रकार का है ? उत्तर-विपाकश्रुत में सुकृत-दुष्कृत अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के फल-विपाक कहे जाते हैं। उस विपाकथ त में दस दुःखविपाक और दस सुखविपाक अध्ययन हैं। प्रश्न-दुःखविपाक क्या है ? उत्तर-दुःखविपाक में दुःखरूप फल भोगने वालों के नगर, उद्यान, वनखंड चैत्य, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इह-परलौकिक ऋद्धि, नरकगमन, भवभ्रमण, दुःखपरम्परा, दुष्कुल में जन्म तथा दुर्लभबोधिता की प्ररूपणा है / यह दुःखविपाक का वर्णन है / विवेचन-विपाकसूत्र में कर्मों का शुभ और अशुभ फल उदाहरणों के द्वारा वणित है। इसके दो श्रु तस्कन्ध हैं, दु:खविपाक एवं सुखविपाक / पहले श्र तस्कन्ध में दस अध्ययन हैं जिनमें अन्याय, अनीति, मांस, तथा अंडे आदि भक्षण के परिणाम, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, रिश्वतखोरी तथा चोरी आदि दहकर्मों के कफलों का उदाहरणों के द्वारा वर्णन किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि जीव इन सब पापों के कारण किस प्रकार नरक और तिर्यंच गतियों में जाकर नाना प्रकार की दारुणतर यातनाएँ पाता है, जन्म-मरण करता रहता है तथा दुःख-परम्परा बढ़ाता जाता है / अज्ञान के कारण जीव पाप करते समय तो प्रसन्न होता है पर जब उनके फल भोगने का समय प्राता है, तब दीनतापूर्वक रोता और पश्चात्ताप करता है। १४--से कि तं सुहविवागा ? सुहविवागेसु णं सुहविवागाणं नगराइं, वणसंडाई, चेइमाई, समोसरणाइं, रायाणो. अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहानो, इहलोइअ-पारलोइया इडिविसेसा, भोगपरिच्चागा, पवज्जाओ, परिपागा, सुअपरिग्गहा, तबोवहाणाई, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पापोवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुहपरंपराओ, सुकुलपच्चायाईग्रो, पुणबोहिलाभा अंतकिरिधानो, प्राविति / ६४–प्रश्न—सुख विपाकश्र त किस प्रकार का है ? उत्तर--सुखविपाक थ त में सुखविपाकों के अर्थात् सुखरूप फल को भोगनेवाले जीवों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, व्यन्तरायतन, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्मोचार्य, धर्मकथा, इस लोकपरलोक सम्बन्धित ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या (दीक्षा) दीक्षापर्याय, श्रत का ग्रहण, उपधानतप, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, सुखों की परम्परा, पुनः बोधिलाभ, अन्तक्रिया इत्यादि विषयों का वर्णन है। ६५-विवागसुयस्स णं परिता वायणा, संखिज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जापो निज्जुत्तोमो, संखिज्जाम्रो संगहणीपो, संखिज्जाश्रो पडिवत्तीयो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org