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________________ श्रुतज्ञान] [176 सौ, चार सौ, इसी क्रम से हजार तक विषयों का वर्णन किया है। और संख्या बढ़ते हुए कोटि पर्यन्त चली गई है। इसके बाद द्वादशाङ्ग गणिपिटक का संक्षिप्त परिचय और त्रेसठ शलाका पुरुषों के नाम, माता-पिता, जन्म, नगर, दीक्षास्थान आदि का वर्णन है। (5) श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र ८७-से कि तं विवाहे ? विवाहे णं जीवा विवाहिज्जति, अजीवा विवाहिज्जंति, जीवाजोवा विवाहिज्जंति, ससमए विश्वाहिज्जति, परसमए विवाहिज्जति ससमय-परसमए विआहिज्जति, लोए विवाहिज्जति, प्रलोए विवाहिज्जति लोयालोए विवाहिज्जति / विवाहस्स णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुयोगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखिज्जायो निज्जुत्तीप्रो, संखिज्जाओ संगहणोश्रो, संखिज्जाम्रो पडिवत्तीयो / से णं अंगठ्ठयाए पंचमे अंगे, एगे सुअक्खंधे, एगे साइरेगे अज्झयणसए, दस उद्देसगसहस्साई, दस समुद्दे सगसहस्साई, छत्तीसं वागरणसहस्साइं, दो लक्खा अढासीई पयसहस्साई पयग्गेणं, संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड निबद्ध-निकाइया जिण-पण्णत्ता भावा प्राविज्जति, पन्नविज्जंति, परूविज्जंति, दंसिज्जंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जति / से एवं पाया, एवं नाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणा आविज्जइ। से त्तं विवाहे / // सूत्र 50 // ८७-व्याख्याप्रज्ञप्ति में क्या वर्णन है ? उत्तर–व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीवों की, अजीवों की तथा जीवाजीवों की व्याख्या की गई है / स्वसमय, परसमय और स्व-पर-उभय सिद्धान्तों की व्याख्या तथा लोक अलोक और लोकालोक के स्वरूप का व्याख्यान किया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-श्लोक विशेष, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। अङ्ग-रूप से यह व्याख्याप्रज्ञप्ति पाँचवाँ अंग है। एक तस्कंध, कुछ अधिक एक सौ अध्ययन हैं / दस हजार उद्देश, दस हजार समुद्देश, छत्तीस हजार प्रश्नोत्तर और दो लाख अट्ठासी हजार पद परिमाण है / संख्यात अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं। परिमित त्रस, अनन्त स्थावर, शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन , तथा उपदर्शन किया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति का अध्येता तदात्मरूप एवं ज्ञाता-विज्ञाता बन जाता है। इस प्रकार इसमें चरण-करण की प्ररूपणा की गई है। यह व्याख्याप्रज्ञप्ति का स्वरूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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