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________________ 174] निन्दीसूत्र अर्थात्-जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा सभी जलाशयों में तथा दर्पणादि स्वच्छ पदार्थों में प्रतिबिम्बित होता है, वैसे ही समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है। उपर्युक्त सभी मतवादियों का समावेश एकवादी में हो जाता है / (2) अनेकवादी-जितने धर्म हैं उतने ही धर्मी हैं, जितने गुण हैं उतने ही गुणी हैं, जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी हैं / ऐसी मान्यता रखनेवाले को अनेकवादी कहते हैं / वे वस्तुगत अनन्त पर्याय होने से वस्तु को भी अनन्त मानते हैं / (3) मितवादी—मितवादी लोक को सप्तद्वीप समुद्र तक ही सीमित मानते हैं, आगे नहीं। वे आत्मा को अंगुष्ठप्रमाण या श्यामाक तण्डुल प्रमाण मानते हैं, शरीरप्रमाण या लोकप्रमाण नहीं / तथा दृश्यमान जीवों को ही प्रात्मा मानते हैं, अनन्त-अनन्त नहीं। (4) निमितवादी-ईश्वरवादी सृष्टि का कर्ता, धर्ता और हर्ता ईश्वर को ही मानते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार यह विश्व किसी न किसी के द्वारा निर्मित है। शैव शिव को, वैष्णव विष्णु को और कोई ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माता मानते हैं। देवी भागवत में शक्ति--देवी को ही निर्मात्री माना है / इस प्रकार उक्त सभी मतवादियों का समावेश इस भेद में हो जाता है। (5) सातावादी-इनकी मान्यता है कि सुख का बीज सुख है और दुःख का बीज दुःख है। इनके कथनानुसार इन्द्रियों के द्वारा वैषयिक सुखों का उपभोग करने से प्राणी भविष्य में भी सुखी हो सकता है और इसके विपरीत तप, संयम, नियम एवं ब्रह्मचर्य आदि से शरीर और मन को दुःख पहुँचाने से जीव परभव में भी दुःख पाता है। तात्पर्य यह है कि शरीर और मन को साता पहुँचाने से ही जीव भविष्य में सुखी हो सकता है / (6) समुच्छेदवादी--समुच्छेदवाद अर्थात् क्षणिकवाद, इसे माननेवाले अात्मा प्रादि सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हैं। निरन्वय नाश इनकी मान्यता है / (7) नित्यवादी-नित्यवाद के पक्षपाती कहते हैं--प्रत्येक वस्तु एक ही स्वरूप में अवस्थित रहती है। उनके विचार से वस्त में उत्पाद-व्यय नहीं होता तथा वस्त परिणामी नहीं वर / कूटस्थ नित्य है। जैसे असत् को उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सत् का विनाश भी नहीं होता / प्रत्येक परमाणु सदा से जैसा चला आ रहा है, भविष्य में भी सर्वथा वैसा ही रहेगा। ऐसी मान्यता रखने वाले अन्य वादी भी इस भेद में समाविष्ट हो जाते हैं / इन्हें विवर्तक भी कहते हैं। (८)न संति परलोकवादी-अात्मा ही नहीं तो परलोक कैसे होगा! आत्मा के न होने से पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ, कोई भी कर्म नहीं है, अत: परलोक मानना भी निरर्थक है / इसके अलावा शांति मोक्ष को कहते हैं, जो प्रात्मा को तो मानते हैं किन्तु कहते हैं कि आत्मा अल्पज्ञ है, वह कभी भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। अतः संसारी प्रात्मा कभी भी मुक्त नहीं हो सकता / अथवा इस लोक में ही शांति या सुख है। इस प्रकार परलोक, पुनर्जन्म तथा मोक्ष के निषेधक जितने भी विचारक हैं, सबका समावेश उपर्युक्त वादियों में हो जाता है। (3) अज्ञानवादी-ये अज्ञान से हो लाभ मानते हैं। इनका कथन है कि जिस प्रकार अबोध बालक के किए हुए अपराधों को प्रत्येक बड़ा व्यक्ति क्षमा कर देता है, उसे कोई दण्ड नहीं देता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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