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________________ श्रु तज्ञान] [171 वेढ़-किसी एक विषय को प्रतिपादन करने वाले जितने वाक्य हैं उन्हें वेष्टक या वेढ कहते हैं / छन्द-विशेष को भी वेढ कहते हैं / वे भी संख्यात ही हैं। श्लोक-अनुष्टुप प्रादि श्लोक भी संख्यात हैं / नियुक्ति-निश्चयपूर्वक अर्थ को प्रतिपादन करने वाली युक्ति, नियुक्ति कहलाती है। ऐसी नियुक्तियाँ संख्यात हैं। प्रतिपत्ति-जिसमें द्रव्यादि पदार्थों की मान्यता का अथवा प्रतिमा आदि अभिग्रह विशेष का उल्लेख हो, उसे प्रतिपत्ति कहते हैं / वे भी संख्यात हैं। उद्देशनकाल–अङ्गसूत्र आदि का पठन-पाठन करना। शास्त्रीय नियमानुसार किसी भी शास्त्र का शिक्षण गुरु की आज्ञा से होता है / शिष्य के पूछने पर गुरु जब किसी भी शास्त्र को पढ़ने की आज्ञा देते हैं, उनकी इस सामान्य आज्ञा को उद्देशन कहते हैं। समुद्देशन काल-गुरु की विशेष प्राज्ञा को समुद्देशन कहते हैं, यथा “प्राचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का अमुक अध्ययन पढ़ो।" इसे समुद्देश भी कहते हैं / अध्ययनादि विभाग के अनुसार नियत दिनों में सूत्रार्थ प्रदान की व्यवस्था पूर्वकाल में गुरुजनों ने की, जिसे उद्देशनकाल एवं समुद्देशन काल कहते हैं। पद-इस प्राचार-शास्त्र में अठारह हजार पद हैं। अक्षर--सूत्र में अक्षर संख्यात हैं / गम–अर्थगम अर्थात् अर्थ निकालने के अनन्त मार्ग हैं / अभिधान अभिधेय के वश से गम होते हैं। त्रस, स्थावर और पर्याय--इसमें परिमित त्रसों का वर्णन है, अनन्त स्थावरों का तथा स्वपर भेद से अनन्त पर्यायों का वर्णन है। शाश्वत-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य नित्य हैं / घट-पटादि पदार्थ प्रयोगज तथा संध्याकालीन लालिमा आदि विश्रसा (स्वभाव) से होते हैं / ये भी उक्त सूत्र में वर्णित हैं / नियुक्ति, हेतु, उदाहरण, लक्षण आदि अनेक पद्धतियों के द्वारा पदार्थों का निर्णय किया गया है / आघविज्जंति-सूत्र में जीवादि पदार्थों का स्वरूप सामान्य तथा विशेषरूप से कथन किया गया है। पण्णविज्जति--नाम आदि के भेद से कहे गए हैं। परूविज्जति--विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किये गए हैं। दंसिज्जति–उपमान-उपमेय के द्वारा प्रदर्शित किए गए हैं। निदंसिज्जंति हेतुओं तथा दृष्टान्तों से वस्तु-तत्त्व का विवेचन किया गया है / उवदंसिज्जंति --शिष्य को बुद्धि में शंका उत्पन्न न हो, अतः बड़ी सुगम रोति से कथन किये गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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