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________________ श्रु तज्ञान] [149 (6) जीव जिस वस्तु का चिन्तन करता है, उसकी अक्षर रूप में शब्दावलि अथवा वाक्यावलि बन जाती है यथा-अमुक वस्तु मुझे प्राप्त हो जाए, मेरा मित्र मुझे मिल जाय आदि श्रादि / यह नोइन्द्रिय अथवा मनोजन्य लब्ध्यक्षर कहलाता है। यहां प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब पांच इन्द्रियों और मन, इन छहों निमित्तों में से किसी भी निमित्त से मतिज्ञान भी पैदा होता है और श्रु तज्ञान भी, तब उस ज्ञान को मतिज्ञान कहा जाय या श्रु तज्ञान ? उत्तर इस प्रकार है- मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य / मतिज्ञान सामान्य है जबकि श्र तज्ञान विशेष, मतिज्ञान मूक है और श्र तज्ञान मुखर, मतिज्ञान अनक्षर है और श्र तज्ञान अक्षरपरिणत होता है। जब इन्द्रिय एवं मन से अनुभूति रूप ज्ञान होता है, तब वह मतिज्ञान कहलाता है और जब वह अक्षर रूप में स्वयं अनुभव करता है या दूसरे को अपना अभिप्राय किसी प्रकार की चेष्टा से बताता है, तब वह अनुभव और चेष्टा आदि श्रु तज्ञान कहा जाता है / ये दोनों ही ज्ञान सहचारी हैं। जीव का स्वभाव ऐसा है कि उसका उपयोग एक समय में एक ओर ही लग सकता है, एक साथ दोनों ओर नहीं। अनक्षर श्रुत:-जो शब्द अभिप्राययुक्त एवं वर्णात्मक न हों, केवल ध्वनिमय हों, वह अनक्षरश्रु त कहलाते हैं। व्यक्ति दूसरे को अपनी कोई विशेष बात समझाने के लिये इच्छापूर्वक संकेत सहित अनक्षर शब्द करता है, वह अनक्षरश्रुत होता है। जैसे लंबे-लंबे श्वास लेना और छोड़ना, छींकना, खाँसना, हुंकार करना तथा सीटी, घंटी, बिगुल आदि बजाना। बुद्धिपूर्वक दसरों को चेतावनी देने के लिए, हित-अहित जताने के लिये, प्रेम, द्वेष अथवा भय प्रदर्शित करने के लिये या अपने आने-जाने की सूचना देने के लिये जो भी शब्द या संकेत किये जाते हैं वे सब अनक्षरथ त में आते हैं। बिना प्रयोजन किया हुआ शब्द अनक्षर श्रुत नहीं होता / उक्त ध्वनियों को भावश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रु त कहा जाता है। संज्ञि-असंज्ञिश्रत ७५--से कि तं सण्णिसुअं? | सण्णिसुअंतिविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिप्रोवएसेण हेऊवएसेणं दिट्टिवानोवएसेणं / से कि तं कालिप्रोवएसेणं ? कालिग्रोवएसेणं-जस्स णं अस्थि ईहा, अवोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिता, वोमंसा, से गं सण्णीति लब्भइ / जस्स णं नत्थि ईहा, प्रवोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिता, वोमंसा, से णं असण्णीति लब्भइ, से तं कालिग्रोवएसेणं / / से कि तं हेऊवएसेणं? हेऊवएसेणं-जस्स णं अस्थि अभिसंधारणपुविआ करणसत्ती, से णं सण्णीत्ति लब्भइ / जस्स णं नस्थि अभिसंधारणपुग्विश्रा करणसत्ती, से णं असण्णीति लब्भइ / से तं हेऊवएसेणं / से कि तं दिदिवाओवएसेणं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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